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________________ (११) इसी बीच पा०वि० के अधिष्ठाता पं० कृष्णचन्द्राचार्य से मेरा कुछ मतभेद हुआ और मैंने विद्याश्रम की छात्रवृत्ति लेनी बन्द कर दी। यहाँ तक कि लिये गये रुपये भी मैंने लौटा दिए और स्वतंत्र रूप से शोधकार्य प्रारम्भ किया। तब मेरा विषय हुआ---'शान्ति पर्व का दर्शन' । किन्तु सन् १९६० के उत्तरार्ध में डॉ० शर्मा दर्शन विभाग के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष बनकर जबलपुर विश्वविद्यालय में चले गए और डॉ० नन्दकिशोर देवराज भारतीय दर्शन एवं धर्म विभाग के प्रो० एवं अध्यक्ष होकर का० वि०वि० में आ गए। नियमानुसार उस समय तक मेरे शोधकार्य की अवधि पूरी नहीं हुई थी। अत: मुझे निरीक्षक बदलना पड़ा और मैं डॉ. देवराज के निरीक्षण में आ गया। निरीक्षक बदलने के कारण मुझे विभाग भी बदलना पड़ा। फलत: दर्शन विभाग से मैं भारतीय दर्शन एवं धर्म विभाग में आ गया। नये विभाग में प्रवेश पाते ही डॉ. शर्मा के निरीक्षण में किए गये कार्य की अवधि समाप्त कर दी गई और डॉ० देवराज के निरीक्षण में मैं एक नये विद्यार्थी के रूप में समझा गया। खैर ! कार्य करता गया, इस आशा के साथ कि जल्दी से जल्दी शोधकार्य समाप्त होगा, डॉक्टर बनूगा। इस तरह सन् १६६४ के जून तक कार्य करता रहा । शोध-प्रबन्ध भी जैसा मैं समझ रहा था, करीब-करीब पूरा हो रहा था और मुझे पूरी आशा बँध गई थी कि इस वर्ष डाक्टर बन जाऊँगा और जीवन की अन्य गति-विधि,में लगूगा । परन्तु धीरे-धीरे यह स्थिति आ गई कि शोधप्रबन्ध में जमा न कर सका । जब ऐसी स्थिति का मुझे भान हुआ तो मेरे पैरों के नीचे से धरती खिसकती हुई नजर आई। क्योंकि तब तक पारिवारिक उत्तरदायित्व एवं आर्थिक बोझ से मेरा कन्धा दबा जा रहा था। पर उस दिन भी मेरे मन का मोह न गया । अर्थोपार्जन के साथ ही शोधकार्य के सफल समापन के उद्देश्य से मैं कलकत्ता चला गया। अपने ससुर जी के बण्डेल स्थित निवासस्थान पर रात्रि व्यतीत करता था और दिन भर कलकत्ते के विभिन्न सेठसाहुकारों तथा कुछ शिक्षाविदों के भी दरवाजे खटखटाता फिरता था। साथही मौका मिलने पर राष्ट्रीय पुस्तकालय से पुस्तकें लेकर कुछ पढ़ लिया करता था। इस तरह एक-दो-तीन करके सात माह समाप्त हो गये । ससुराल के सुखद स्वागत को देखते हुए किसी नादान ने कहा था-'ससुराल रहे के चाही', तो किसी समझदार ने उसका प्रतिकार करते हुए कहा था--'दिन दुइए चारी' अर्थात् ससुराल में दो-चार दिनों तक ही रहना चाहिए। और मैं तो परिस्थितिवश सात माह रह गया। इसके बावजूद भी बात कुछ जमी नहीं, न तो आर्थिक प्रगति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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