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________________ १३० जैन धर्म में हिंसा रखता है, वह परमसमाधिस्थ है। जो सभी चर-अचर जीवों को समान देखता है, वही परमसमाधिस्थ है।' इस प्रकार नियमसार में समिति, गप्ति तथा परमसमाधि के संबंध में नियम निर्धारित करते समय सर्वदा हिंसा को त्याज्य तथा अहिंसा को मुक्तिदायक, परम सुखदायक तथा ग्राह्य बताया गया है। पुरुषार्थसिद्धय पाय : इसे 'जिनप्रवचनरहस्य-कोश' एवं 'श्रावकाचार' के नाम से भी जाना जाता है। इसमें प्राप्त पद्यों की संख्या २२६ है और इसके रचयिता अमृत चन्द्रसूरि हैं। इस पुस्तक में 'पुरुष' अर्थात् आत्मा के उद्देश्य की सिद्धि के साधनों पर प्रकाश डाला गया है। इसीलिए इसका नाम 'पुरुषार्थसिद्धय पाय' रखा गया है। इसके सम्यकचारित्र व्याख्यान में हिंसा का विवेचन करते हुए कहा गया है कि हिंसा का सर्वथा त्याग सकलचारित्र और एक देश का त्याग देशचारित्र कहा जाता है ।२ सकलचारित्र का पालन करनेवाला मुनि और देशचारित्र का पालन करनेवाला श्रावक समझा जाता है। हिंसा, अनृत, स्तेय, अब्रह्मचर्य, परिग्रह-ये पाँच पाप हिंसा के गर्भ में ही पाए जाते हैं । हिंसा के दो प्रकार हैं : आत्म-घात यानी स्व-हिंसा और पर-घात १. विरदी सव्वसावज्जे तिगुत्तीपिहिदिदियो। तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।। १२५ ॥ जो समो सव्वभूदेसु थावरेसु तसेसु वा । तस्स सामाइगं ठाई इदि केवलिसासणे ॥ १२६ ।। हिंसातोऽनृतवचनात्स्तेयादब्रह्मतः परिग्रहतः । कात्स्न्ये कदेशविरतेश्चारित्रं जायते द्विविधम् ।। ४० ।। ३. निरतः कात्स्न्यनिवृत्ती भवति यति: समयसारभूतोऽयं । या त्वेकदेशविरतिनिरतस्तस्यामुपासको भवति ॥ ४१ ।। ४. प्रात्मपरिणामहिंसनहेतुत्वात्सर्वमेव हिंसैतत् । अनतवचनादि केवलसुदाहृतं शिष्यबोधाय ॥ ४२ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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