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________________ श्रहिंसा-संबंधी जैन साहित्य १३१ यानी पर-हिंसा । " कषाय से हिंसा होती है । कषाय पहले मन में जाग्रत होता है जिससे आत्मा का यानी अपना घात होता है यद्यपि बाद में पर घात यानी पर हिंसा होती है । राग, द्वेष सबसे पहले किसी के मन में आता है फिर उसके परिणामस्वरूप वह किसी दूसरे को कष्ट देता है । इससे ज्ञात होता है कि पर-हिंसा करने के पहले वह अपना घात कर लेता है । फिर व्यक्ति पर - हिंसा करता है । हिंसा का विचार मन में लाते ही उसके फल का भागी हो जाता है भले ही वह समय या परिस्थिति के कारण वैसा सोचे हुए के अनुसार कर सके या नहीं | यदि कोई व्यक्ति किसी को कष्ट देना चाहता हो किन्तु उपक्रम करने के बाद कष्ट के बदले संयोगवश उसे सुख मिल जाता है तो भी कोशिश करने - वाला हिंसा के फल का ही भागी होगा । 3 हिंसा को त्यागने - वाले के लिए यह आवश्यक है कि वह यत्नपूर्वक मद्य, मांस, शहद और ऊमर, कठूमर, पिपल, बड़, पाकर के फल का त्याग करें, क्योंकि इनसे हिंसा का भाव मन में जगता है । ५ इसी तरह हिंसा के फल आदि के विवेचन मिलते हैं । मूलाचार : मूलाचार के कर्त्ता वट्टकेराचार्य हैं । इसके रचनाकाल के सम्बन्ध में कोई निश्चित जानकारी नहीं होती, फिर भी इसकी रचनाशैली के आधार पर इसे भगवती आराधना के समकालीन माना जाता है । १. यस्मात्सकषाय: सन् हन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानम् । पश्चाज्जायेत न वा हिंसा प्राण्यन्तराणां तु ॥ ४७ ॥ २. अविधायापि हि हिंसा हिंसाफलभाजनं भवत्येकः । कृत्वाप्यपरो हिसां हिसाफलभाजनं न स्यात् ॥ ५१ ॥ ३. हिंसाफलमपरस्य तु ददात्यहिंसा तु परिणामे । इतरस्य पुनहिंसा दिशयहसाफलं नान्यत् ॥ ५७ ॥ ४. मद्यं मोहयति मनो मोहितचित्तस्तु विस्मरति धर्मम् । विस्मृतधर्मा जीवो हिंसामविशङ्कमाचरति ।। ६२ ॥ ५. श्लोक ६३-१०८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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