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________________ पहिंसा-संबंधी जैन साहित्य १२९ पहुंचाने से विरत होना अर्थात् अहिंसा को प्रथम व्रत बताया गया है। इस अध्याय में समितियों तथा गुप्तियों के भी विवेचन मिलते हैं।' अध्याय आठ प्रायश्चित्त में उपदेश दिया गया है कि साधु को चाहिए कि वह क्रोध को क्षमा से, मान को विनम्रता से, धोखे को सीधेपन से तथा लोभ को सन्तोष से जीते।। अध्याय नौ परमसमाधि में परमसमाधिस्थ के लक्षण को बताते हुए कहा गया है कि जो व्यक्ति सभी प्रकार की हिंसा सेमनसा, वाचा, कर्मणा-विरत है और अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण १. कुल जोणिजीवमग्गण-ठाणाइसु जाणऊण जीवाणं । तस्सारंभणियत्तण-परिणामो होइ पढमवदं ।।५६॥ गाथा ५७ भी देखें। पासुगमग्गेण दिवा अवलोगंतो जुगप्पमाणं हि । गच्छा पुरदो समणो इरियासमिदी हवे तस्स ॥६॥ पेसुण्णहासकक्क सपरणिंदप्पप्पसंसियं वयणं । परिचित्ता सपरहिदं भासासमिदी वदंतस्स ॥६२।। कदकारिदाणुमोदणरहिंदं तह पासुगं पसत्थं च । दिण्णं परेण भत्त समभुत्ती एसणासमिदी ।।६३।। पोत्थइकमंडलाइ गहणविसग्गेसु पयतपरिणामो। पादावणणिक्खेवणसमिदी होदि त्ति णिद्दिट्ठा ।।६४।। पासुगभूमिपदेसे गूढे रहिए परोपरोहेण । उच्चारादिच्चागो पइट्ठा समिदी हवे तस्स ॥६५॥ बंधणछेदणमारणाकुंचण तह पसारणादीया । कायकिरियाणियत्ती णिद्दिट्ठा कायगुत्ति त्ति ॥६८॥ कायकारियाणियत्ती काउस्सग्गो सरीरगे गुत्ती । हिंसाइणियत्ती वा सरीरगुत्ति ति णिहिट्ठा ।।७०॥ कोहं समया माणं समद्दवेणज्जवेण मायं च । संतोसेण य लोहं जयदि खुए चहुविहकसाए ॥११॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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