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________________ अहिंसा-संबंधी जैन साहित्य १०७ तथा बताया गया है कि चलते समय किसी प्रकार की हिंसा न हो इस पर साधु-साध्वी को पूरा ध्यान देना चाहिए।' इसी तरह द्वितीय चूला में भी सात अध्ययन हैं-स्नान, निषीधिका, उच्चार-प्रस्रवण, शब्द, रूप, परक्रिया और अन्योन्यक्रिया। उच्चार-प्रस्रवण-मल-मूत्र त्याग की विधि को अहिंसा के सिद्धान्त पर आधारित किया गया है । तृतीय चूला, जो 'भावना' नाम से सम्बोधित हुई है, में महावीर के चरित्र तथा महाव्रतों की पांच भावनाओं की चर्चा हुई है और चतुर्थ चूला विमुक्ति का विषय मोक्ष है। सूत्रकृतांग : सूत्रकृतांग शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार बताई गई है "स्वपरसमयार्थसूचकं सूत्रा, साऽस्मिन् कृतमिति सूत्रकृतांगम्" अर्थात् स्वसमय-स्वागम और परसमय-परागम के भेद और स्वरूप को विश्लेषित करना सूत्रा है, और वह सूत्रा जिसमें रहे, वह सूत्रकृतांग है। इसमें क्रियावाद, अक्रियावाद, नियतिवाद, अज्ञानवाद, जगत्कर्तृत्ववाद एवं लोकवाद आदि के खण्डन-मंडन प्रस्तुत किये गये हैं। समवायांग तथा नन्दी सूत्र में इसका परिचय इसकी विशालता को साबित करता है। इसमें स्वमत, परमत, जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष आदि के विषय में निर्देश है; नवदीक्षितों के लिए बोधवचन हैं, १५० क्रियावादी मतों, ८४ अक्रियावादी मतों, ६७ अज्ञानवादी मतों और ३२ विनयवादी मतों-इस प्रकार सब मिलाकर ३६३ अन्य दृष्टियों अर्थात् अन्ययूथिक मतों की चर्चा है। यह दो श्रुतस्कन्धों में विभाजित है, जिनमें क्रमशः १६ तथा ७ अध्ययन हैं। इसके अन्तिम अध्ययन का १. प्राचारांग आत्मारामजी, द्वितीय भाग, पृष्ठ १०६८. २. वही, पृ० १२६१. ३. प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास-डा. नेमिचन्द्र . शास्त्री, पृष्ठ १६६. ४. प्राकृत और उसका साहित्य-डा० मोहनलाल मेहता, पृष्ठ ७-८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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