SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०८ जैन धर्म में अहिंसा नाम “नालन्दीय" है क्योंकि इसमें नालन्दा में घटने वाली घटनाओं के वर्णन है। इसके प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन तथा प्रथम उद्देशक में हिंसा को हानिप्रद एवं त्याज्य बताते हए कहा गया है कि जो व्यक्ति प्राणियों को मारता है अथवा मारनेवालों को आज्ञा देता है वह उन प्राणियों के साथ अपना वैर बढ़ाता है। इसके अलावा इस अध्ययन में अहिंसा के रूप पर भी प्रकाश डाला गया है। द्वितीय अध्ययन में हिंसा तथा अहिंसा दोनों के ही फल बताये गये हैं। जो व्यक्ति आरम्भ में आसक्त है तथा प्राणियों को दण्ड देना तथा हिंसा करना पसन्द करता है वह नरक में चिरकाल तक पड़ा रहता है । ३ • जो आदमी घर में रहकर भी श्रावक धर्म को पालता है, प्राणियों की हिंसा नहीं करता तथा सबको समान समझता है यानी समता के सिद्धान्त का पालन करता है वह देव. लोक में स्थान प्राप्त करता है। तृतीय अध्ययन में शाक्य आदि मतानुगामियों को असंयमी घोषित करते हुए कहा गया है कि ये लोग हिंसा करते हैं, झूठ बोलते हैं, मैथुन तथा परिग्रह करते हैं। आगे चलकर इसका विरोध किया गया है कि सिर्फ पीड़ा देना ही दोष है, क्योंकि अन्य मतवालों ने मात्र पीड़ा देने को ही हिंसा कहा है। ऐसे विचार वालों को पार्श्वस्थ, मिथ्यादृष्टि एवं अनार्य कहा गया है क्योंकि मात्र पीड़ा देना ही दोष हो ऐसी बात नहीं; नैतिक १. सयं तिवायए पाणे, अदुवाऽन्नेहिं घायए। हणंतं वाऽणुजाणाइ, वेरं वड्डइ अप्पणो ।।३।। २. सूत्र १०. ३. उद्देशक ३, सूत्र ६. ४, उद्देशक ३, सूत्र १३. ५. पाणाइवाते वटुंता, मुसावादे प्रसंजता । मदिन्नादाणे वट्ठता, मेहुणे य परिग्गहे ।।८। उद्देशक ४. ६. उद्देशक ४, सूत्र १२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy