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________________ ५२ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन में कामचेष्टा की जाय या नहीं, कर्मबन्ध अवश्यम्भावी है। इसलिए कामभावरूप रागपरिणाम अब्रह्म का नियतस्वलक्षण है और कामभाव का अभाव ब्रह्मचर्य का। इसलिए नियतस्वलक्षणावलम्बिनी निश्चयदृष्टि से कामभाव को 'अब्रह्म' की संज्ञा दी गई है तथा कामभाव के अभाव को ब्रह्मचर्य की। और चूँकि मन, वचन एवं काय से की जानेवाली मैथुनादि कामचेष्टा अशुभ मनोयोग, अशुभ वाग्योग और अशुभ काययोग होने से अशुभास्रव का निमित्त अतएव बन्ध का कारण है, इसलिए अरहन्तदेव ने उसके लिए उपचार से अब्रह्म शब्द का प्रयोग किया है और उसके अभाव को उपचार से 'ब्रह्म' नाम दिया है। इसी प्रकार परद्रव्येच्छारूप रागपरिणति बाह्यपरिग्रह का निमित्त है। इस अवस्था में बाह्य पदार्थों का संग्रह किया जाय या नहीं इच्छामात्र से कर्मबन्ध होता है। अतः इच्छा परिग्रह का नियतलक्षण है और इच्छा का अभाव अपरिग्रह का। इसलिए नियतस्वलक्षणावलम्बिनी निश्चयदृष्टि का अनुसरण करते हुए जिनेन्द्रदेव ने इच्छा को 'परिग्रह'' शब्द से अभिहित किया है और इच्छा के अभाव को 'अपरिग्रह" शब्द से। यत: परद्रव्येच्छारूप रागभाव से जीव परद्रव्य को ग्रहण करता है और परद्रव्यग्रहण मूर्छा ( परद्रव्य के संरक्षण, संवर्धन और संस्करण की इच्छा ) का निमित्त होता है इसलिए अरहन्त भगवान् ने उसे उपचार से ‘परिग्रह' संज्ञा दी है और परद्रव्य के त्याग को 'अपरिग्रह' संज्ञा। इस प्रकार नियतस्वलक्षणावलम्बिनी निश्चयदृष्टि ( निश्चयनय ) के अनुसार आत्मा के रागादिपरिणाम की हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्म और परिग्रह संज्ञाएँ हैं। इसके विपरीत उपचारावलम्बिनी व्यवहारदृष्टि ( व्यवहारनय ) के अनुसार जीवघात ( प्राणव्यपरोपण ), असत्यवचन, अदत्तादान, मैथुन एवं बाह्यपरिग्रह को ये संज्ञाएँ दी गयी हैं। १. "मैथुनमब्रह्म।" तत्त्वार्थसूत्र, ७/१६ २. “परद्रव्ये ममत्वरूपमू परिग्रहेण तु नियमेन बन्धो भवति।" । प्रवचनसार/तात्पर्यवृत्ति, ३/१९ ३. “इच्छा परिग्रहः।" समयसार/आत्मख्याति, २११ ४. “अपरिग्गहो अणिच्छो।" वही/आत्मख्याति, २११ ५. (क) “तस्योभयप्रकारस्यापि परिग्रहस्य संरक्षणे, उपार्जने, संस्करणे, वर्द्धनादौ व्यापारो मनोऽभिलाषः मूर्छा प्रतिपाद्यते।" तत्त्वार्थवृत्ति, ७/१७ (ख) यद्येवं भवति तदा परिग्रहो न खलु कोऽपि बहिरङ्गः । भवति नितरां यतोऽसौ धत्ते मूर्छानिमित्तत्वम् ।। पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, ११३ ६. "रागादिपरिणतिर्निश्चयहिंसा।" प्रवचनसार/तात्पर्यवृत्ति, ३/१७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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