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________________ निश्चयनय / ५१ है। यह क्रूरपरिणाम से निष्पन्न अशुभकाययोग' अशुभास्रव का कारण होता है और अशुभ द्रव्यकर्मों का आस्रव तीव्रकषायवश बन्ध में परिणत हो जाता है। इसलिए बन्ध का हेतु होने से प्रमत्तयोगजन्य परजीवधात को जिनेन्द्रदेव ने उपचारावलम्बिनी व्यवहारदृष्टि का अनुसरण करते हुए उपचार से हिंसा संज्ञा दी है। इसीलिए जीवघात से निवृत्ति को उपचारत: अहिंसा शब्द से अभिहित किया है। परपीड़ाकर अप्रशस्त वचन असत्यवचन कहलाते हैं। उनकी उत्पत्ति आत्मा के रागादिग्रस्त होने पर होती है। और मुख से अप्रशस्त वचन निकलें या न निकलें रागादिग्रस्त होने मात्र से कर्मबन्ध होता है, अत: रागादिपरिणाम या प्रमत्तभाव असत्य का नियतलक्षण होने से नियतस्वलक्षणावलम्बिनी निश्चयदृष्टि के अनुसार 'असत्य' शब्द से अभिहित किया गया है। और रागादिपरिणाम या प्रमत्तभाव का अभाव सत्य का नियतलक्षण है। अत: उपर्युक्त दृष्टि से इसे 'सत्य' नाम दिया गया है। असत्यवचन अशुभ वाग्योग है। वह अशुभास्रव का निमित्त है और अशुभास्रव बन्ध का। इसलिए परम्परया बन्ध का हेतु होने से सर्वज्ञ ने असत्यवचन को उपचार ( उपचारावलम्बी व्यवहारनय ) से असत्य नाम दिया है और उसके अभाव को उपचार से 'सत्य' शब्द से अभिहित किया है। चौर्यक्रिया में प्रवृत्ति लोभादिरूप रागपरिणति से होती है। इस दशा में चोरी की जाय या नहीं रागपरिणतिमात्र से कर्मबन्ध होता है। अत: लोभरूप रागपरिणति चौर्य का नियत लक्षण है। इस अपेक्षा से उसकी 'चौर्य' संज्ञा है। और लोभरूप रागपरिणति का अभाव अचौर्य का नियत लक्षण है। इस दृष्टि से उसका नाम अचौर्य है। अदत्तादान अर्थात् चोरी की क्रिया अशुभ काययोग है। वह अशुभास्रव का निमित्त है और अशुभास्रव बन्ध का । अत: परम्परया बन्धहेतु होने से अदत्तादान को आगम में उपचारत: 'चौर्य' शब्द से अभिहित किया गया है और उसके अभाव को उपचारतः 'अचौर्य' शब्द से। कामभावरूप रागपरिणाम काम-क्रियाओं में प्रवृत्ति का हेतु है। इस प्रमत्तदशा १. (क) “प्राणातिपातादत्तादानमैथुनादिरशुभ: काययोगः।''. (ख) “अशुभपरिणामनिवृत्तश्चाशुभ:।' सर्वार्थसिद्धि ६/३ २. “मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः।” तत्त्वार्थसूत्र ८/१ ३. "प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा।" वही, ७/१३ ४. यदिदं प्रमादयोगादसदभिधानं विधीयते किमपि । तदनृतमपि विज्ञेयं तद्भेदाः सन्ति चत्वारः ।। पुरुषार्थसिद्धयुपाय, ९१ ५. (क) “असदभिधानमनृतम्।" तत्त्वार्थसूत्र, ७/१४ (ख) “अनृतभाषणपरुषासभ्यवचनादिरशुभो वाग्योग:।' वही, ६/३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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