________________
निश्चयनय / ५३
इसी प्रकार एक ओर नियतस्वलक्षणावम्बी निश्चयनय से रागादि के अभाव को अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह नाम दिये गये हैं, दूसरी ओर, उपचारावलम्बी व्यवहारनय से जीवघातनिवृत्ति, असत्यवचननिवृत्ति, अदत्तादाननिवृत्ति, मैथुननिवृत्ति एवं बाह्यपरिग्रहनिवृत्ति को इन नामों से संकेतित किया गया
इन दोनों दृष्टियों के अभिप्राय को समझनेवाला व्यक्ति जब इन दृष्टियों से विचार करता है तब स्पष्ट हो जाता है कि रागादिपरिणाम की ही हिंसा आदि संज्ञाएँ वास्तविक हैं, जीवघातादि की अवास्तविक। जीवघातादि को प्रयोजनवश ये नाम दिये गये हैं। इसी प्रकार रागादि के अभाव की अहिंसादि संज्ञाएँ यथार्थ हैं, और जीवघातादि से निवृत्ति को दी गई ये संज्ञाएँ अयथार्थ। इस प्रकार दोनों दृष्टियों से विचार करने पर मनुष्य अयथार्थ को यथार्थ समझने की भूल से बच जाता है।
शुभाशुभपरिणामनिवृत्ति की 'व्रत' संज्ञा समस्त शुभाशुभ परिणामों से निवृत्ति अर्थात् स्वस्वरूप में निश्चलरूप से स्थित होना, जिसे परमसामायिक और निर्विकल्प समाधि भी कहते हैं, व्रत का नियतस्वलक्षण है, क्योंकि उससे शभाशुभ दोनों प्रकार के कर्मों का संवर और निर्जरा होती है। इसलिए नियतस्वलक्षणावलम्बिनी निश्चयदृष्टि का आश्रय लेकर सर्वज्ञदेव ने इसे 'व्रत' संज्ञा दी है, जैसा कि श्री ब्रह्मदेव सूरि के निम्नलिखित वचन से विदित होता है -
"सर्वशुभाशुभनिवृत्तिरूपाणि निश्चयव्रतानि।" – समस्त शुभाशुभ भावों से निवृत्ति निश्चयव्रत है।
। अत: जब हम नियतस्वलक्षणावलिम्बनी निश्चयदृष्टि से व्रतों के स्वरूप का विचार करते हैं तब इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि शुभाशुभभावों से निवृत्ति ही वास्तविक ( स्वलक्षणसम्मत ) व्रत है तथा जीवघात, अप्रशस्तवचन, अदत्तादान, मैथुन तथा बाह्यपरिग्रह से विरति को उपचार से 'व्रत' संज्ञा दी गयी है, क्योंकि इनके अभ्यास से ही जीव निश्चयव्रत को ग्रहण करने में समर्थ होता है, इसलिए निश्चयव्रत के साथ इनका साध्यसाधक सम्बन्ध है।
१. "ततः परं समस्तशुभाशुपरिणामनिवृत्तिरूपं स्वस्वरूपे निश्चलावस्थानं परमसामायिक__व्रतमारोहति।" प्रवचनसार/तात्पर्यवृत्ति, ३/७ । २. बृहद्र्व्य संग्रह/ब्रह्मदेवसूरिटीका/गाथा, ५७ ३. “निश्चयेन ... .'' समस्तशुभाशुभरागादिविकल्पनिवृत्तिव्रतम्। व्यवहारेण तत्साधकं हिंसानृतास्तेयाब्रह्मपरिग्रहाच्च यावज्जीवनिवृत्तिलक्षणं पञ्चविधं व्रतम्।
बृहद्रव्यसंग्रह/ब्रह्मदेवसूरिटीका/गाथा, ३५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org