SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन धम्मादीसदहणं सम्मत्तं णाणमंगपुव्वगदं । चिट्ठा तवंहि चरिया ववहारो मोक्खमग्गोत्ति ।। - जीवादि पदार्थों का श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन, ग्यारह अंगों एवं चौदह पूर्वो का ज्ञानरूप सम्यग्ज्ञान तथा बारह प्रकार के तप एवं तेरह प्रकार के चारित्र में प्रवृत्तिरूप सम्यक्चारित्र, इनके सम्मिलित रूप की मोक्षमार्ग संज्ञा व्यवहारनय से है। __ इससे यह तथ्य दृष्टि में आ जाता है कि परद्रव्याश्रित सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप शुभोपयोग को प्रयोजनवश उपचार से मोक्षमार्ग नाम दिया गया है, परमार्थत: मोक्षमार्ग नहीं है। इस तथ्य के दृष्टि में आने से निश्चित हो जाता है कि शुद्धोपयोग ही वास्तविक मोक्षमार्ग है। स्वात्मश्रद्धानादि की 'सम्यग्दर्शनादि' संज्ञाएँ स्वात्मा का सम्यक्श्रद्धान निश्चयमोक्षमार्ग का अंग होने से सम्यग्दर्शन का नियतस्वलक्षण है। अत: नियतस्वलक्षणावलम्बिनी निश्चयद्रष्टि का अनुसरण कर इस वास्तविक सम्यग्दर्शन को सम्यग्दर्शन कहा गया है और इसका साधक होने से जीवादि के श्रद्धान को उपचारावलम्बिनी व्यवहारदृष्टि से सम्यग्दर्शन संज्ञा दी गई है। यहाँ निश्चय और व्यवहार विशेषणों से स्पष्ट कर दिया गया है कि स्वात्मश्रद्धान ही वास्तविक सम्यग्दर्शन है, जीवादिश्रद्धान वास्तविक सम्यग्दर्शन नहीं है, अपितु वास्तविक सम्यग्दर्शन का साधक होने से उसकी उपादेयता दर्शाने हेतु उसे उपचार से सम्यग्दर्शन नाम दिया गया है। इसी न्याय से आत्मज्ञान की सम्यग्ज्ञान संज्ञा नियतस्वलक्षणावलम्बिनी निश्चयदृष्टि पर आश्रित है तथा जीवादि तत्त्वों के ज्ञान का सम्यग्ज्ञान नाम उपचारावलम्बिनी व्यवहारदृष्टि पर। ये दोनों दृष्टियाँ इस बात का निश्चय कराती हैं कि आत्मज्ञान ही वास्तविक सम्यग्ज्ञान है, जीवादि तत्त्वों का ज्ञान वास्तविक सम्यग्ज्ञान नहीं है, अपितु उसका साधक होने से उपचार से सम्यग्ज्ञान शब्द से अभिहित किया गया है। इसी प्रकार निजशुद्धात्मभाव में निश्चल अवस्थान के लिए सम्यक्चारित्र १. पञ्चास्तिकाय/गाथा, १६० २. “दर्शनमात्मविनिश्चितिः।" पुरुषार्थसिद्ध्युपाय/कारिका, २१६ ३. “जीवादीसद्दहणं सम्मत्तं।'' समयसार/गाथा, १५५ ४. "आत्मपरिज्ञानमिष्यते बोधः।' पुरुषार्थसिद्ध्युपाय/कारिका, २१६ ५. “जीवादीसद्दहणं सम्मत्तं तेसिमधिगमो- णाणं।" समयसार/गाथा, १५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy