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निश्चयनय / ४७
शब्द का प्रयोग नियतस्वलक्षणावलम्बी निश्चयनय से किया गया है तथा अशभ से निवृत्ति एवं शुभ में प्रवृत्ति को सम्यक्चारित्र संज्ञा उपचारावलम्बी व्यवहारनय से दी गयी है। यहाँ भी इन दोनों दृष्टियों से विचार करने पर स्पष्ट हो जाता है कि निजशुद्धात्मस्वभाव में निश्चल अवस्थान वास्तविक सम्यक्चारित्र है और अशुभ से निवृत्ति एवं शुभ में प्रवृत्ति को साध्य-साधक सम्बन्ध के कारण उपचार से सम्यक्चारित्र नाम दिया गया है।
रागद्वेषमोह की 'आस्रव-बन्ध' संज्ञाएँ जीव के रागद्वेषमोह परिणाम द्रव्यास्रव ( पुद्गल कर्मों के आस्रव ) एवं द्रव्यबन्ध ( आत्मा और पुद्गलकर्मों के संश्लेष सम्बन्ध ) के निमित्त होते हैं। अतएव आस्रव एवं बन्ध के नियतलक्षण हैं। इसलिए नियतस्वलक्षणावलम्बिनी निश्चयदृष्टि से उन्हें जिनेन्द्रदेव के द्वारा आस्रव और बन्ध नाम दिये गये हैं, जैसा कि आचार्य अमृतचन्द्र के निम्नलिखित प्ररूपण से प्रकट होता है -
“मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगाः पुद्गलपरिणामाः । ज्ञानावरणादिपुद्गलकर्मास्रवणनिमित्तत्वात् किलास्रवाः। तेषां तु तदास्रवणनिमित्तत्वनिमित्तम् अज्ञानमया आत्मपरिणामा रागद्वेषमोहाः। तत आस्रवणनिमित्तत्वनिमित्तत्वाद् रागद्वेषमोहा एवातावः।"
- नवीन पुद्गलकर्मों का आस्रव पूर्वबद्ध मिथ्यात्वादि पुद्गलकर्मों के उदय के निमित्त से होता है और उनका उदय आस्रव का निमित्त तभी बनता है जब उससे आत्मा रागद्वेषमोहपरिणाम करता है। इस प्रकार नवीन पुद्गलकर्मों के आस्रव के जो निमित्त हैं उनके निमित्त होने से रागद्वेषमोहपरिणाम ही मुख्यत: आस्रव हैं।
"द्रव्यबन्धस्य साधकतमत्वाद् रागपरिणाम एव निश्चयेन बन्धः।"५ - द्रव्यबन्ध का साधकतम होने से रागपरिणाम ही निश्चयनय से बन्ध है।
चूँकि रागद्वेषमोह के निमित्त से आत्मा में द्रव्यकर्मों का आगमन और संश्लेष होता है, अत: जिनेन्द्रदेव ने कार्य में कारण का उपचारकर अर्थात् उपचारावलम्बिनी व्यवहारदृष्टि से द्रव्यकर्मों के आगमन और संश्लेष को भी आस्रव और बन्ध संज्ञाएँ १. "रागादिविकल्परहितत्वेन स्वशुद्धात्मन्यवस्थानं निश्चयचारित्रमिति।"
समयसार/तात्पर्यवृत्ति/गाथा, १५५ २. "असुहादो विणिवित्ती सुहे पउत्ती य जाण चारित्तं।" बृहद्र्व्यसंग्रह/गाथा, ४५ ३. “बन्धस्य तु आत्मद्रव्यासाधारणा रागादय: स्वलक्षणम्।"
समयसार/आत्मख्याति/गाथा, २९४ ४. वही/आत्मख्याति/गाथा, १६४-१६५ ५. प्रवचनसार/तत्त्वदीपिका, २/८७
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