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निश्चयनय / २७
सत्ता से अभिन्न होती है। यह बात आचार्य अमृतचन्द्र ने निम्नोद्धृत व्याख्यान में स्पष्ट की है -
"जिसे परद्रव्य और आत्मा के नियत स्वलक्षणों की भिन्नता का ज्ञान होता है वही ज्ञानी एक चिन्मात्रभाव को अपना समझता है, शेष समस्त भावों को पराया। ऐसा जानते हुए वह परभावों को 'ये मेरे हैं' यह कैसे कह सकता है ? पर और
आत्मा में निश्चयनय ( मौलिक भेद की दृष्टि ) से स्वस्वामिसम्बन्ध नहीं है। इसलिये चिद्भाव ही सर्वथा ग्राह्य है, शेष सभी भाव त्याज्य हैं।'
परद्रव्य के साथ जीव के स्वस्वामिसम्बन्ध का निश्चयनय से अभाव प्रतिपादित करने के लिए कुन्दकुन्ददेव ने एक सुन्दर युक्ति दी है। वे कहते हैं : “ऐसा कौन ज्ञानी होगा जो यह कहे कि यह परद्रव्य मेरा द्रव्य है ? ज्ञानी तो निश्चितरूप से निजात्मा को ही अपना परिग्रह ( स्व ) मानता है। वह सोचता है कि यदि जड़ परद्रव्य मेरा परिग्रह हो तो उससे मेरे अभिन्न ( तद्रूप ) होने का प्रसंग आयेगा, जिससे मैं भी जड़ ठहरूँगा। किन्तु मैं तो ज्ञाता हूँ, इसलिए जड़ द्रव्य मेरा परिग्रह ( स्व ) नहीं है। मेरी अपनी वस्तु तो एकमात्र ज्ञायकभाव है। वही मेरा स्व है, उसी का मैं स्वामी हैं।"" जीव को अपने नियतस्वलक्षण के द्वारा यह निर्णय करना चाहिये कि मेरे भीतर जो यह चैतन्यभाव है वही निश्चयनय से मैं हूँ। इसके अतिरिक्त जितने भी भिन्न लक्षण वाले भाव मुझमें दिखाई देते हैं वे मुझसे भिन्न तत्त्व हैं, मैं नहीं हूँ।"५ यही बात आचार्य अमृतचन्द्र ने निम्नलिखित काव्य में कही है - १. “यो हि परात्मनोर्नियतस्वलक्षणविभागपातिन्या प्रज्ञया ज्ञानी स्यात् स खल्वेकं चिन्मानं
भावमात्मीयं जानाति शेषांश्च सर्वानेव भावान् परकीयान् जानाति। एवं च जानन् कथं परभावान् ममामी इति ब्रूयात् परात्मनोनिश्चयेन स्वस्वामिसम्बन्धस्यासम्भवात् ? अतः सर्वथा चिद्भाव एव गृहीतव्यः, शेषाः सर्वे एव भावाः प्रहातव्या इति सिद्धान्तः।"
समयसार/आत्मख्याति/गाथा, ३०० २. को णाम भणिज्ज बुहो परदव्वं मम इमं हवदि दव्वं ।
अप्पाणमप्पणो परिग्गहं तु णियदं वियाणंतो ।। समयसार/गाथा, २०७ ३. मज्झं परिग्गहो जइ तदो अहमजीवदं तु गच्छेज्ज ।
णादेव अहं जह्मा तह्मा ण परिग्गहो मज्झ ।। वही/गाथा २०८ ४. “मम तु एको ज्ञायक एव भाव: य: स्व: अस्यैवाहं स्वामी।"
समयसार/आत्मख्याति/गाथा २०८ ५. पण्णाए घित्तव्वो जो चेदा सो अहं तु णिच्छयदो ।
अवसेसा जे भावा ते मज्झ परे त्ति णायव्वा ।। समयसार/गाथा, २९७
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