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________________ २६ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन नाम जीव नहीं है। रागादिभाव भी जीव की संसारावस्था में ही व्याप्त होते हैं, मोक्षावस्था उनकी व्याप्ति से रहित होती है। इसलिए उनके साथ भी जीव का तादात्म्यसम्बन्ध नहीं होता। अत: रागादिभाव भी जीव के भाव नहीं हैं, अर्थात् जीव नहीं हैं। आचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि वर्णादि से लेकर गुणस्थानपर्यन्त जिन भावों का पूर्व में कथन किया गया है वे सिद्धान्तग्रन्थों में ( उपचारावलम्बी ) व्यवहारनय से जीव के भाव कहे गये हैं, ( मौलिकअभेदावलम्बी ) निश्चयनय से नहीं।' इसे आचार्य अमृतचन्द्र ने इस प्रकार स्पष्ट किया है, "व्यवहारनय पर्यायाश्रित है। इसलिए वह जीव की पुद्गलसंयोग से सिद्ध अनादि बन्धपर्याय के औपाधिक ( नैमित्तिक ) भावों का अवलम्बन कर प्रवृत्त होता है। अत: वह अन्य के भावों को अन्य का बतलाता है। किन्तु निश्चयनय द्रव्य पर आश्रित होता है। फलस्वरूप वह केवल जीव के स्वाभाविक भाव के आश्रय से प्रवृत्त होता है, इसलिए अन्य के भाव को अन्य का भाव बतलाये जाने का निषेध करता है।" स्वभावभेद के कारण जिनकी सत्ता ही जीव से सदा पृथक् रहती है वे न तो जीव के स्व हो सकते हैं. न जीव उनका स्वामी। जिनेन्द्रदेव ने निश्चयनय से स्वगुणपर्यायों के साथ ही जीव का स्वस्वामिसम्बन्ध बतलाया है, क्योंकि स्वधर्मों में ही जीव का स्वभाव विद्यमान रहता है, जिसके कारण उनकी सत्ता जीव की १. 'ततो न वर्णादयो जीव इति निश्चयसिद्धान्तः।' समयसार/आत्मख्याति/गाथा,६५-६६ २. ( क ) 'रागद्वेषमोह"गुणस्थानान्यपि "जीवस्य सर्वाण्यपि न सन्ति तादात्म्यलक्षण सम्बन्धाभावात्।' वही/आत्मख्याति/गाथा, ५८-६० ( ख ) “एवं रागद्वेषमोहलब्धिस्थानान्यपि पुद्गलकर्मपूर्वकत्वे सति नित्यमचेतन त्वात् पुद्गल एव न तु जीव इति स्वयमायातम्। ततो रागादयो भावा न जीव इति सिद्धम्।' वही/आत्मख्याति/गाथा, ६८ ३. ववहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वण्णमादीया । गुणठाणंता भावा ण दु केई णिच्छयणयस्स ।। वही/गाथा, ५६ ४. 'इह हि व्यवहारनयः किल पर्यायाश्रितत्वाज्जीवस्य पुद्गलसंयोगवशादनादिप्रसिद्ध बन्धपर्यायस्य कुसुम्भरक्तस्य कार्पासिकवासस इवौपाधिकं भावमवलम्ब्योत्प्लवमान: परभाव परस्य विदधाति। निश्चयनयस्तु द्रव्याश्रितत्वात् केवलस्य जीवस्य स्वाभाविकं भावमवलम्ब्योत्प्लवमानः परभावं परस्य सर्वमेव प्रतिषेधयति। ततो व्यवहारेण वर्णादयो गुणस्थानान्ता भावा जीवस्य सन्ति, निश्चयेन तु न सन्तीति युक्ता प्रज्ञप्तिः।' ___ वही/आत्मख्याति/गाथा, ५६ ५. 'यो हि यस्य स्वो भाव: स तस्य स्वः, स तस्य स्वामीति।' __ वही/आत्मख्याति/गाथा, २०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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