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________________ निश्चयनय / २५ स्थान, विशुद्धिस्थान, संयमलब्धिस्थान, जीवस्थान और गुणस्थान ये सभी पुद्गल के परिणाम ( पुद्गलकर्मनिमित्तक ) हैं । अतः चैतन्यलक्षण से शून्य होने के कारण इनके साथ जीव का तादात्म्यसम्बन्ध नहीं है अर्थात् जीव तद्रूप ( वर्णादिरूप ) नहीं है। इसलिए इन्हें निश्चयनय से जीव का नहीं कहा जा सकता।' ,१ तादात्म्यसम्बन्ध के लक्षण को स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं: "जो धर्म वस्तु की सभी अवस्थाओं में व्याप्त होता है, कोई भी अवस्था जिसकी व्याप्ति से रहित नहीं होती, उसके साथ वस्तु का तादात्म्यसम्बन्ध होता है । वर्णादिभाव जीव की संसारावस्था में व्याप्त होते हैं, किन्तु मोक्षावस्था उनकी व्याप्ति से शून्य होती है, इसलिए वर्णादि के साथ जीव का तादात्म्यसम्बन्ध किसी भी प्रकार नहीं है। "" आचार्य कुन्दकुन्द एवं आचार्य अमृतचन्द्र बतलाते हैं कि वर्णादिभावों के साथ जीव का वैसा ही एकक्षेत्रावगाह ( संश्लेष ) सम्बन्ध है जैसा दूध और पानी का होता है। जैसा अग्नि का उष्णता के साथ तादात्म्यसम्बन्ध होता है अर्थात् जैसे अग्नि उष्णतारूप ही होती है वैसा तादात्म्यसम्बन्ध वर्णादि के साथ जीव का नहीं है। क्योंकि जीव अपने चैतन्यरूप प्रतिविशिष्ट स्वभाव के कारण अन्य समस्त द्रव्यों से भिन्न है। इसलिए वर्णादिभाव जीव के नहीं हैं अर्थात् वर्णादि भावों का १. समयसार / गाथा, ५०-५५ २. “यत्किल सर्वास्वप्यवस्थासु यदात्मकत्वेन व्याप्तं भवति तदात्मकत्वव्याप्तिशून्यं न भवति तस्य तैः सह तादात्म्यलक्षणः सम्बन्धः स्यात् । ततः सर्वास्वप्यवस्थासु वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तस्य भवतो, वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तिशून्यस्याभवतश्च पुद्गलस्य वर्णादिभिः सह तादात्म्यलक्षणः सम्बन्धः स्यात् । संसारावस्थायां कथञ्चिद् वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तस्य भवतो वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तिशून्यस्याभवतश्चापि मोक्षावस्थायां सर्वथा वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तिशून्यस्य भवतो वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तस्याभवतश्च जीवस्य वर्णादिभिः सह तादात्म्यलक्षणः सम्बन्धो न कथञ्चनापि स्यात् । " वही / आत्मख्याति / गाथा, ६१ ३. ( क ) एएहिं य संबंधो जहेव खीरोदयं मुणेदव्वो । णय हुंति तस्स ताणि दु उवओगगुणाधिगो जम्हा ।। वही / गाथा, ५७ ( ख ) “वर्णादिपुद्गलद्रव्यपरिणाममिश्रितस्यास्यात्मन: पुद्गलद्रव्येण सह परस्परावगाहलक्षणे सम्बन्धे सत्यपि स्वलक्षणभूतोपयोगगुणव्याप्यतया सर्वद्रव्येभ्योऽधिकत्वेन प्रतीयमानत्वाद् अग्नेरुष्णगुणेनेव सह तादात्म्यलक्षणसम्बन्धाभावान्न निश्चयेन वर्णादिपुद्गलपरिणामाः जीवस्य सन्ति । " वही / आत्मख्याति / गाथा, ५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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