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२४ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
निषेध है। व्यवहारनय ( संश्लेषसम्बन्धावलम्बिनी व्यवहारदृष्टि ) से संश्लेषसम्बन्ध को वास्तविक बतलाया गया है।'
पर के साथ स्वस्वामिसम्बन्ध का निषेध मौलिकभेदावलम्बिनी निश्चयदृष्टि का अनुसरण करते हुए जिनेन्द्रदेव ने संसारी जीव में दिखाई देनेवाले शरीर के वर्णादि भावों तथा पुद्गलकर्मनिमित्तक रागादिभावों के साथ जीव के स्वस्वामिसम्बन्ध का निषेध किया है। आचार्य कुन्दकुन्द इस पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं : “यद्यपि अरहन्तदेव ने जीव में बन्धपर्याय से अवस्थित कर्म या नोकर्म ( शरीर ) के वर्ण को देखकर आधाराधेयसम्बन्ध के कारण 'यह जीव का वर्ण है' ऐसा उपचार से प्रज्ञापित किया है, तथापि ( मौलिकभेदावलम्बी ) निश्चयनय से विचार करने पर प्रतीत होता है कि जीव नित्य अमूर्त स्वभाववाला है एवं उपयोग गुण ( चैतन्यस्वभाव ) के कारण शेष समस्त द्रव्यों से भिन्न है, अत: उसके कोई वर्ण नहीं है। इसी प्रकार गन्ध, रस, स्पर्श, रूप, देह तथा संस्थान आदि को भी निश्चयद्रष्टा ऋषि ( उपचारावलम्बी ) व्यवहारनय से जीव का कहते हैं, ( मौलिकअभेदावलम्बी) निश्चयनय से नहीं। निश्चयनय से इन्हें जीव का क्यों नहीं कहा जा सकता, इसका व्याख्यान कुन्दकुन्ददेव ने इस प्रकार किया है -
___ "वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, रूप, शरीर, संस्थान, संहनन, राग, द्वेष, मोह, मिथ्यात्वादि प्रत्यय, कर्म, नोकर्म, वर्ग, वर्गणा, स्पर्द्धक, अध्यात्मस्थान, अनुभागस्थान, योगस्थान, बन्धस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, स्थितिबन्धस्थान, संक्लेश
१. “ननु वर्णादयो बहिरङ्गास्तत्र व्यवहारेण क्षीरनीरवत् संश्लेषसम्बन्धो भवतु ।"
समयसार/तात्पर्यवृत्ति/गाथा, ५७ २. ( क ) पंथे मुस्संतं पस्सिदूण लोगा भणंति ववहारी ।
मुस्सदि एसो पंथो ण य पंथो मुस्सदे कोई ।। तह जीवे कम्माणं णोकम्माणं च पस्सिदुं वण्णं । जीवस्स एस वण्णो जिणेहिं ववहारदो उत्तो ।। गंधरसफासरूवा देहो संठाणमाइया जे य । सव्वे ववहारस्स य णिच्छयदण्हू ववदिसंति ।।
समयसार/गाथा, ५८-६० ( ख ) 'तथा जीवे बन्धपर्यायेणावस्थितं कर्मणो नोकर्मणो वा वर्णमुत्प्रेक्ष्य तात्स्थ्यात्त
दुपचारेण जीवस्यैष वर्ण इति व्यवहारतोऽर्हदेवानां प्रज्ञापनेऽपि न निश्चयतो नित्यमेवामूर्तस्वभावस्योपयोगगुणाधिकस्य जीवस्य कश्चिदपि वर्णोऽस्ति।'
वही/आत्मख्याति/गाथा, ५८-६०
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