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२८ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
सिद्धान्तोऽयमुदात्तचित्तचरितैर्मोक्षार्थिभिः सेव्यतां शुद्धं चिन्मयमेकमेव परमं ज्योतिः सदैवास्म्यहम् । एते ये तु समुल्लसन्ति विविधा भावा पृथग्लक्षणाः
तेऽहं नास्मि यतोऽत्र ते मम परद्रव्यं समग्रा अपि ।।
अर्थात् जिनके चित्त का चरित्र उदात्त है उन मोक्षार्थियों को यह सिद्धान्त गाँठ में बाँधकर रख लेना चाहिये कि मैं सदैव एक ही शुद्ध चिन्मय परम ज्योति हूँ। ये जो पृथक् लक्षणवाले अन्य अनेक भाव मुझमें झलकते हैं वे मैं नहीं हूँ, क्योंकि वे सब मुझसे भिन्न द्रव्य हैं।
परभाव से कर्ता-कर्मसम्बन्ध का निषेध द्रव्य का अपना परिणाम कर्म कहलाता है और उसका जन्मदाता द्रव्य उसका कर्ता, जैसा कि कहा गया है -
'य: परिणमति स कर्ता य: परिणामो भवेत्तु तत्कर्म।२
तथा
___'ननु परिणाम एव किल कर्म विनिश्चयत:।'३
दूसरे शब्दों में, पूर्वपर्याययुक्त द्रव्य का नाम कर्ता है और उत्तरपर्याय से युक्त उसी द्रव्य का नाम कर्म -
पुव्वपरिणामजुत्तं कारणभावेण वट्टदे दव्वं ।।
उत्तरपरिणामजुदं तं चिय कज्जं हवे णियमा ।।
कर्ता-कर्म के यही नियत लक्षण हैं। अत: कर्ता-कर्मभाव एक ही वस्तु में होता है। इसीलिए आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है -
व्यावहारिकदृशैव केवलं कर्तृ कर्म च विभिन्नमिष्यते ।। निश्चयेन यदि वस्तु चिन्त्यते कर्तृ कर्म चसदैकमिष्यते ।।
अर्थात् व्यवहारनय से ही भिन्न वस्तुओं में कर्ताकर्मभाव माना जाता है। यदि निश्चयनय से विचार किया जाय तो सदा एक ही वस्तु कर्ता और कर्म होती
१. समयसार/कलश, १८५ २. वही/कलश, ५१ ३. वही/कलश, २११ ४. कार्तिकेयानुप्रेक्षा/गाथा, २२२ ५. समयसार/कलश, २१०
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