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________________ निश्चयनय / १५ संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ये सात पदार्थ पुद्गल के निमित्त से जीव में उत्पन्न होते हैं, अत: ये जीव के औपाधिक ( नैमित्तिक ) भाव हैं।' जीव के निमित्त से ये पुद्गल में भी उत्पन्न होते हैं अत: वे पुद्गल के नैमित्तिक भाव हैं। औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक तथा क्षायिक भाव जीव के औपाधिक भाव हैं, क्योंकि ये कर्मों के उदय, उपशम, क्षयोपशम तथा क्षय के निमित्त से आविर्भूत होते हैं। जीव की मनुष्य, देव, तिर्यञ्च और नारकपर्यायें कर्मों के उदय के निमित्त से होती हैं तथा पुद्गलसंयोगजन्य हैं, अत: ये जीव की औपाधिक अवस्थाएँ हैं। सिद्ध पर्याय की उत्पत्ति भी घाती और अघाती दोनों प्रकार के कर्मों के क्षय से होती है। इसलिए यह भी नैमित्तिक या औपाधिक है। द्रव्य का असाधारण स्वभाव जिन विभिन्न गुणों के रूप में अभिव्यक्त होता है वे द्रव्य के विशिष्ट स्वभाव या 'विशेष' कहलाते हैं। वस्तु और उसके धर्मों में जो संज्ञादि का भेद होता है वह बाह्य भेद है तथा परद्रव्य के साथ रहनेवाले संयोगादि सम्बन्ध का नाम बाह्यसम्बन्ध है। जीवादि परद्रव्यों के श्रद्धानादि को पराश्रित भाव कहते हैं। अन्य के लिए अन्य के वाचक शब्द का प्रयोग करना उपचार कहलाता है। इनमें से उपचार को छोड़कर सभी पदार्थ द्रव्य और पर्याय में गर्भित हैं। मूलपदार्थ, मूलस्वभाव, मौलिक भेद, मौलिक अभेद और नियतस्वलक्षण ये पाँचों द्रव्य में अन्तर्भूत हैं। जैसे शुद्ध चैतन्यभाव आत्मद्रव्य का नियतस्वलक्षण है और स्वत:सिद्ध है, परद्रव्य के संयोगादि से उत्पन्न नहीं है, अत: मूल पदार्थ है। अपने दर्शन, ज्ञान, चारित्रादि विशेष-स्वभावों में अखण्डरूप से व्याप्त होता है अतः स्वयं आत्मा का मूलस्वभाव है। आत्मद्रव्य और उसके दर्शनज्ञानादि गुणों में अखण्ड रूप से व्याप्त रहने के कारण ही उनमें मौलिक अभेद का प्रकाशक है। आत्मा के अतिरिक्त शेष द्रव्यों में उपलब्ध नहीं होता, इसलिए परद्रव्यों से मौलिक भेद का सूचक है। दूसरी ओर, सोपाधिक पदार्थ ( जीव और पुद्गल की संयुक्त अवस्था ) तथा औपाधिक भाव पर्याय हैं। दर्शन, ज्ञान, चारित्रादि विशेष भी पर्याय हैं। संज्ञादि१. “जीवपुद्गलसंयोगपरिणामनिर्वृत्ताः सप्तान्ये च पदार्थाः।" पञ्चास्तिकाय/तत्त्वदीपिका/गाथा १०८ २. “तत्रोदयेन युक्त औदयिकः। उपशमेन युक्त औपशमिकः। क्षयोपशमेन युक्तः क्षायोपशमिकः। क्षयेण युक्तः क्षायिकः। परिणामेन युक्तः पारिणामिकः। त एते पञ्च जीवगुणाः। तत्रोपाधिचतुर्विधनिबन्धनाश्चत्वारः। स्वभावनिबन्धन एकः।" वही/गाथा, १६ ३. “अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्यान्या समारोपणसमद्भूतव्यवहारः। असद्भूतव्यवहार ___एवोपचारः।" आलापपद्धति/सूत्र २०७-२०८ ४. “तथात्मनो ज्ञानदर्शनादिपर्यायेण"।" समयसार/आत्मख्याति/गाथा, १४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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