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निश्चय और व्यवहार नयों की पृष्ठभूमि / ११
क्योंकि परप्राणों के व्यपरोपण को हिंसा संज्ञा न दी जाय तो जीव उनकी रक्षा का प्रयत्न नहीं करेगा। निश्चयनय की अपेक्षा गुरु मूर्छा को परिग्रह निरूपित करते हैं
और व्यवहारनय की अपेक्षा परद्रव्य के संग्रह को 'परिग्रह' शब्द से अभिहित करते हैं, जिससे कि जीव मूर्छा के बाह्य निमित्त से बच सके।
इस प्रकार गुरुदेव निश्चय और व्यवहार दोनों नयों का अवलम्बन कर अज्ञानी शिष्यों को जीवादि तत्त्वों का उपदेश देते हैं, जिससे वस्तु के अनेकान्तस्वरूप के ज्ञानपूर्वक उनके दुर्निवार अज्ञान की निवृत्ति सम्भव होती है।
देशना के सम्यक् ग्रहण हेतु नयभेद का ज्ञान आवश्यक
गुरु निश्चय और व्यवहार नयों का आश्रय लेकर उपदेश देते हैं। उसे सम्यग्रूप से ग्रहण करने के लिए शिष्य को भी इन नयों के स्वरूप का समीचीन ज्ञान होना आवश्यक है। इन नयों के कथन किन अपेक्षाओं पर आश्रित हैं अथवा कौन सा कथन किस नय से संगत है, यह ज्ञान भलीभाँति होना चाहिए। यह ज्ञान न होने पर बड़ी भ्रान्तियाँ उत्पन्न होती हैं। जैसे कोई द्रव्यदृष्टि से किये गए निश्चयनय के कथन को पर्यायदृष्टि से किया गया मान लेता है, अर्थात् निश्चयनय को व्यवहारनय समझ लेता है। उदाहरणार्थ, आगम में आत्मा को द्रव्यदृष्टि से सिद्धसमान कहा गया है। नयज्ञान से रहित मनुष्य अपने को पर्याय की अपेक्षा सिद्धवत् अनुभव करने लगता है। जिनेन्द्रदेव ने निश्चयनयाश्रित उपदेश में जीव को द्रव्य की अपेक्षा रागादि से भिन्न बतलाया है। नयज्ञानशून्य मनुष्य आत्मा को पर्याय की अपेक्षा रागादि से भिन्न समझ लेता है। समयसार में आत्मा को द्रव्यदृष्टि से अबद्धस्पृष्ट कहा है। नयज्ञानविहीन व्यक्ति पर्याय की दृष्टि से अबद्धस्पृष्ट समझने की भूल कर बैठता है।' भगवान् ने शुभप्रवृत्ति को बन्ध की अपेक्षा हेय कहा है, पाप से बचने की अपेक्षा उपादेय बतलाया है, किन्तु नयनेत्ररहित मनुष्य सर्वथा हेय मान लेता है। आगम में निश्चयनय का अवलम्बन कर द्रव्य की प्रधानता से आत्मा और परद्रव्य में निमित्तनैमित्तिकादि समस्त सम्बन्धों का अभाव बतलाया है। नयदृष्टिविहीन जीव उनका सर्वथा अभाव समझ बैठता है। इन समस्त भ्रान्तियों को निश्चयैकान्त या निश्चयाभास कहते हैं।
कोई मनुष्य व्यवहारनय को निश्चयनय के रूप में ग्रहण कर लेता है। यथा, जिनेन्द्रदेव ने शुद्धोपयोगरूप मोक्षमार्ग का साधक होने की अपेक्षा सम्यक्त्वपूर्वक शुभोपयोग को व्यवहारनय से मोक्षमार्ग संज्ञा दी है, किन्तु नयभ्रमित व्यक्ति उसे १. मोक्षमार्गप्रकाशक/अधिकार ७/पृ० १९३. २. वही/अधिकार ७/पृ० १९६. ३. वही/अधिकार ७/पृ० १९८.
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