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________________ १२ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन वास्तविक मोक्षमार्ग मान लेता है। इसी प्रकार आगम में आत्मा और शरीर के संश्लेष-सम्बन्ध की अपेक्षा व्यवहारनय से मनुष्यादि शरीरों को जीव कहा है। नयज्ञान से शून्य मनुष्य इसे द्रव्यदृष्टि से किया गया कथन मानकर मनुष्यादि शरीरों को ही परमार्थत: जीव समझने लगता है। इसे व्यवहारैकान्त या व्यवहाराभास कहा गया कुछ लोग दोनों नयों के कथन को अपेक्षा भेद के बिना समानरूप से सत्य मान लेते हैं, क्योंकि नयों के भेद को वे समझ नहीं पाते हैं और दोनों नयों से भगवान् ने उपदेश दिया है, इसलिए किसी नय को असत्य मान नहीं सकते। अत: वे दोनों के कथन को परमार्थतः सत्य स्वीकार करने की मजबूरी निभाते चलते हैं। भगवान् ने आत्मा को निश्चयनय से चैतन्यस्वभाव कहा है और व्यवहारनय से रागादिस्वभाव बतलाया है, इसलिए यह भेद किये बिना कि चैतन्यस्वभाव किस अपेक्षा से कहा है और रागादिस्वभाव किस अपेक्षा से, वे आत्मा को एक ही अपेक्षा से दोनों स्वभाववाला मान लेते हैं। इसी प्रकार निश्चयनय से शुद्धोपयोग को मोक्षमार्ग बतलाया है और व्यवहारनय से शुभोपयोग को। यहाँ अपेक्षाभेद का विचार किये बिना दोनों को वास्तविक मोक्षमार्ग समझकर एक साथ साधने की निष्फल चेष्टा करते हैं। यह उभयैकान्त अथवा उभयाभास है। नयविभाग से अनभिज्ञ व्यक्ति की भ्रान्तबुद्धि का एक दृष्टान्त समयसार में दिया गया है। कवियों ने तीर्थङ्करों की स्तुति उनके शारीरिक गुणों के द्वारा की है। इसे देखकर नयभेद से अनभिज्ञ व्यक्ति कहता है, “तीर्थङ्करों की स्तुति उनके शरीर की स्तुति के अतिरिक्त कुछ नहीं है। इसलिए मेरा दृढ़ मत है कि शरीर ही आत्मा है। यदि ऐसा न हो तो तीर्थङ्करों की सारी स्तुति मिथ्या हो जायेगी।' इसके उत्तर में आचार्य कहते हैं, “ऐसा नहीं है। तुम नयभेद से अनभिज्ञ हो ( अर्थात् कौन सा कथन किस नय की अपेक्षा से किया गया है इसे तुम नहीं जानते )। जीव और शरीर के संश्लेषसम्बन्ध को दृष्टि में रखकर व्यवहारनय से जीव और शरीर को एक माना जाता है। इसी अपेक्षा से अर्थात् व्यवहारनय से शरीर के स्तवन से आत्मा का स्तवन संगत होता है। किन्तु, निश्चयनय से विचार करने पर अर्थात् आत्मा और पुद्गल के नियत स्वलक्षणों पर ध्यान देने से ज्ञात होता है कि जीव चेतनस्वभाव है और पुद्गल जड़स्वभाव। इस तरह उनके स्वभावों में अत्यन्त भिन्नता है, अत: वे कभी एक नहीं हो सकते। इसलिए निश्चयनय से १. जदि जीवो ण सरीरं तित्थयरायरियसंथुदी चेव । सव्वावि हवदि मिच्छा तेण दु आदा हवदि देहो ।। समयसार, गाथा २६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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