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१० / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
समाप्त हो जाता है। इसी प्रकार गुरु अनुभव कराते हैं कि निश्चयनय से देखने पर केवल मूल पदार्थ ही दिखाई देता है, दो पदार्थों का सम्बन्ध दिखाई नहीं देता, क्योंकि इसको देखने वाली व्यवहारदृष्टि उस समय बन्द रहती है। इसलिए निश्चयदृष्टि से संयोगादि सम्बन्ध अभूतार्थ सिद्ध होते हैं।
किन्तु, इसके साथ ही गुरु व्यवहारनय ( पर्यायदृष्टि या द्विष्ठसम्बन्धदृष्टि ) का अवलम्बन कर आत्मा और परद्रव्य में संश्लेष, संयोग, निमित्तनैमित्तिकादि सम्बन्धों को भूतार्थ बतलाते हैं, जिससे यह समाधान हो जाता है कि जीव की संसारावस्था मौलिक नहीं है, अपितु पुद्गलसंयोगजन्य है, रागादिभाव स्वाभाविक नहीं हैं, बल्कि पुद्गलकर्मनिमित्तक हैं। इसलिए पुद्गलकर्मों के संयोग से छुटकारा पाकर जीव मुक्त हो सकता है। इसी प्रकार स्त्री-पुत्र, धन-सम्पत्ति आदि के साथ संयोग सम्बन्ध का बोध होने से यह भी निश्चय हो जाता है कि इनके साथ लौकिकदृष्टि से अपने-पराये का भेद वास्तविक है। इस भेद की वास्तविकता के आधार पर ही परप्राणव्यपरोपणरूप हिंसा, परस्त्रीगमनरूप व्यभिचार, परधनहरणरूप चोरी, परद्रव्यसंग्रहरूप परिग्रह आदि पापों की सत्यता सिद्ध होती है।
तथा गुरुश्री निश्चयनय का आश्रय लेकर शुद्धोपयोग को ही मोक्षमार्ग ठहराते हैं, क्योंकि शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्मों का संवर और निर्जरा शुद्धोपयोग से ही होती है। किन्तु व्यवहारनय ( साध्य-साधकसम्बन्धदृष्टि ) को प्रधानता देकर शुभोपयोग को मोक्षमार्ग प्रतिपादित करते हैं, क्योंकि शुभोपयोग के अभ्यास से ही जीव शुद्धोपयोग के योग्य बन पाता है। यदि केवल निश्चयनय के अभिप्राय से शुद्धोपयोग को ही मोक्षमार्ग बतलाया जाय और शुभोपयोग को मोक्षमार्ग संज्ञा न दी जाय तो शिष्य एकान्तरूप से शुद्धोपयोग को ही मोक्षमार्ग मानकर उसी में स्थित होने का प्रयास करता रहेगा, लेकिन विषयकषायों से ग्रस्त होने के कारण सफल न हो पायेगा, जिससे पापसंचय करते हुए ही मनुष्यायु समाप्त हो जायेगी। दूसरी
ओर, व्यवहारनय की दृष्टि से केवल शुभोपयोग को ही मोक्षमार्ग कहा जाय, शुद्धोपयोग के मोक्षमार्गत्व का वर्णन न किया जाय तो जीव एकान्तरूप से शुभोपयोग को ही मोक्षमार्ग समझकर उसी में लगा रहेगा और पुण्यबन्ध करता हुआ स्वर्गादि के चक्कर काटता रहेगा, मुक्त न हो पायेगा।
इसी प्रकार गुरुवर निश्चयनय की दृष्टि से पाप और पुण्य दोनों को बन्धकारण होने की अपेक्षा हेय प्रतिपादित करते हैं और व्यवहारनय के अभिप्राय से पाप से बचने के लिए पुण्य को उपादेय ठहराते हैं। निश्चयनय का अवलम्बन कर रागादि की उत्पत्ति को हिंसा बतलाते हैं तथा व्यवहारनय की अपेक्षा से ( निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध की दृष्टि से ) परप्राणव्यपरोपण को हिंसा संज्ञा देते हैं,
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