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________________ निश्चय और व्यवहार नयों की पृष्ठभूमि । ९ अज्ञान दूर हो जाता है। वह शरीर और रागादिभावों से पृथग्भूत चिन्मात्रभाव में ही जीवद्रव्य की सत्ता का निश्चय करता है। किन्तु इसके साथ ही गुरुदेव व्यवहारनय का अवलम्बन कर जीवसंयुक्त शरीर को भी जीव कहते हैं, इसलिए कि शिष्य स्वभाव की दृष्टि से तो आत्मा को शरीर से पृथक् माने, किन्तु पर्यायदृष्टि से पृथक् न मान ले। यदि पर्यायदृष्टि से भी पृथक् मान लिया तो जीव के साथ शरीर का कोई सम्बन्ध दिखेगा ही नहीं और तब शरीर के घात से जीवघातरूप हिंसा का पाप घटित नहीं होगा। इससे कर्मबन्ध के अभाव का प्रसंग आयेगा और कर्मबन्ध के अभाव में मोक्ष का अभाव घटित होगा। व्यवहारनय के उपदेश से यह अनर्थ नहीं हो पाता। इसी प्रकार शरीर को सर्वथा जीव समझने से जो अनर्थ हो सकता है वह निश्चयनय के उपदेश से बच जाता है। इसी प्रकार गुरु निश्चयनय के आश्रय से जीव को रागादिभावों से भिन्न दर्शाने के साथ-साथ व्यवहारनय का अवलम्बन कर अभिन्न भी प्रदर्शित करते हैं, जिससे कि जीव पर्यायदृष्टि से भी शुद्ध न मान लिया जाय, अन्यथा जो पर्यायदृष्टि से भी शुद्ध हो, उसके लिए मोक्ष की आवश्यकता कैसे सिद्ध होगी ? दूसरी तरफ द्रव्यदृष्टि से आत्मा को रागादि से भिन्न न माना जाय तो वे आत्मा के स्वभाव सिद्ध होंगे। इस स्थिति में मोक्ष की सम्भावना ही समाप्त हो जायेगी, क्योंकि जो स्वभाव है उससे कोई मुक्त कैसे हो सकता है ? इस अनर्थ का प्रतिकार निश्चयनय के उपदेश से हो जाता है।' तथा गुरुदेव निश्चयनय ( द्रव्यदृष्टि ) का आश्रय लेकर परद्रव्य और आत्मा में वस्तुरूप से पृथक्त्व दर्शाते हैं और सिद्ध करते हैं कि जो द्रव्य मूलत: पृथक्पृथक् हैं अर्थात् जिनकी सत्ता ही अलग-अलग है उनमें कोई किसी का कर्त्ता या कर्म कैसे हो सकता है ? कोई किसी का स्वामी या स्व ( अपना ) कैसे हो सकता है ? कोई किसी की स्वस्त्री या परस्त्री, स्वधन या परधन कैसे हो सकता है ? इस निश्चयनयाश्रित विश्लेषण से शिष्य को निश्चय हो जाता है कि जीव परद्रव्य का कर्ता-हर्ता या स्वामी नहीं है, न ही कोई स्वस्त्री है, न परस्त्री, न स्वपुरुष, न परपुरुष, न स्वधन, न परधन। इस ज्ञान से परद्रव्य के प्रति ममत्व का आधार १. सर्वे एवैतेऽध्यवसानादयो भावा जीवा इति यद्भगवद्भिः सकलज्ञैः प्रज्ञप्तं तदभूतार्थस्यापि व्यवहारस्यापि दर्शनम्। व्यवहारो हि व्यवहारिणां म्लेच्छाभाषेव म्लेच्छानां परमार्थप्रतिपादकत्वादपरमार्थोऽपि तीर्थप्रवृत्तिनिमित्तं दर्शयितुं न्याय्य एव। तमन्तरेण तु शरीराज्जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनात् बसस्थावराणां भस्मन इव नि:शङ्कमुपमर्दनेन हिंसाभावाद् भवत्येव बन्धस्याभावः। तथा रक्तो द्विष्टो विमूढो जीवो बध्यमानो मोचनीय इति रागद्वेषमोहेभ्यो जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनेन मोक्षोपायपरिग्रहणाभावाद् भवत्येव मोक्षस्याभावः।" समयसार/आत्मख्याति/गाथा ४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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