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८ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
इस प्रकार सत्य के दो रूप : परमार्थसत्य और व्यवहारसत्य या लौकिक सत्य आगमसिद्ध हैं।
उपदेश के लिए निश्चय-व्यवहार नयों का आश्रय
जीवादि तत्त्व अनेकान्तात्मक हैं इसलिए जिनेन्द्रदेव ने उनकी प्ररूपणा निश्चय और व्यवहारनयों के आश्रय से की है। गुरु भी शिष्यों के अज्ञान की निवृत्ति के लिए निश्चय और व्यवहार नयों का अवलम्बन कर वस्तुस्वरूप का विवेचन करते हैं, जैसा कि आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है -
मुख्योपचार - विवरणनिरस्तदुस्तरविनेयदुर्बोधाः ।
व्यवहारनिश्चयज्ञाः प्रवर्तयन्ते जगति तीर्थम ।।२
अर्थात् निश्चय और व्यवहार के ज्ञाता गुरु मुख्य विवरण ( द्रव्याश्रित या मूलाश्रित कथन ) तथा उपचारविवरण ( पर्यायाश्रित कथन ) द्वारा शिष्यों के दुर्निवार अज्ञान को मिटाकर जगत् में धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते हैं। - अनादि अज्ञानवश जीव शरीर को आत्मा मानता है और इन्द्रियसुख को ही सुख समझता है। देवी-देवताओं के प्रकोप को दुःख का कारण मानता है और उनकी पूजा-भक्ति को तथा प्राणियों की बलि देकर उन्हें प्रसन्न करने को दु:ख-निवारण का उपाय समझता है। ईश्वर की आराधना और शुभक्रियाएँ उसकी दृष्टि में मोक्ष का मार्ग होती हैं। वह अपने को परद्रव्यों का कर्ता, धर्ता, हर्ता और उन्हें अपने सुख-दुःख का कारण मानकर चलता है। परद्रव्यों में उसकी ममत्वबुद्धि होती है। दु:ख के वास्तविक कारण और दुःख-मुक्ति के वास्तविक उपाय की उसे समझ नहीं होती।
इसलिए हितैषी गुरु निश्चयनय का आश्रय लेकर प्रतिनियत स्वलक्षण की युक्ति से समझाते हैं कि जीवों में जो शुद्धचैतन्य भाव है उसका नाम आत्मा है तथा वह शरीर और रागादिभावों से भिन्न है। इससे अज्ञानी जीव का आत्मविषयक
व्याख्याने कृते सति द्वितीयपक्षे व्यवहारेण कर्तृत्वं भोक्तृत्वं च क्रोधादिभ्यश्चाभिन्नत्वं च लभ्यते एव। कस्मात् ? निश्चयव्यवहारयोः परस्परसापेक्षत्वात्। कथमिति चेत् ? यथा दक्षिणेन चक्षुषा पश्यत्ययं देवदत्तः इत्युक्ते वामेन न पश्यतीत्यनुक्तसिद्धिमिति। ये पुनरेवं परस्परसापेक्षनयविभागं न मन्यन्ते सांख्यसदाशिवमतानुसारिणस्तेषां मते यथा शुद्धनिश्चयनयेन कर्ता न भवति क्रोधादिभ्यश्च भिन्नो भवति तथा व्यवहारेणापि। ततश्च क्रोधादिपरिणमनाभावे सति सिद्धानामिव कर्मबन्धाभावः। कर्मबन्धाभावे संसाराभावः।
संसाराभावे सर्वदा मुक्तत्वं प्राप्नोति।" समयसार/तात्पर्यवृत्ति/गाथा ११३-११५ १. "उभयनयायत्ता पारमेश्वरी तीर्थप्रवर्तना।" पंचास्तिकाय/तत्त्वदीपिका/गाथा १५९ २. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, कारिका ४.
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