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________________ निश्चय और व्यवहार नयों की पृष्ठभूमि / ७ गुणों में व्याप्त आत्मा का चैतन्यभावरूप एक मूल स्वभाव परमार्थसत्य है तथा चैतन्य - रूप मूलस्वभाव में निमग्न दर्शन, ज्ञान, चारित्रादि विशिष्ट स्वभाव व्यवहार - सत्य हैं। शरीर, धन-सम्पत्ति तथा परिवारजनों के साथ आत्मा का प्रदेशात्मक एकत्व न होने से स्वस्वामिसम्बन्ध का अभाव परमार्थसत्य है, किन्तु संयोगसम्बन्ध होने से स्वस्वामिसम्बन्ध का सद्भाव व्यवहारसत्य है । परद्रव्यों में स्वशरीर, परशरीर, स्वस्त्री, परस्त्री, निजधन, परधन इत्यादि अपने-पराये का भाव लौकिक सत्य है । इस सत्य के बिना परप्राणव्यपरोपणरूप हिंसा, परधनहरणरूप चोरी, परस्त्रीगमनरूप अब्रह्म तथा धनादिसंग्रहरूप परिग्रह के पाप घटित नहीं हो सकते, न ही इनके त्याग से फलित होने वाले अणुव्रतों और महाव्रतों, अनशनादि तप श्रावकधर्म और मुनिधर्म का अस्तित्व सिद्ध हो सकता है। इसीलिए आचार्य जयसेन ने लोकव्यवहार को व्यवहाररूप से सत्य बतलाया है। इसी प्रकार वस्तु का मूल नाम परमार्थसत्य है और औपचारिक नाम व्यवहारसत्य । जैसे शरीर का 'शरीर' नाम परमार्थ सत्य है क्योंकि यह नाम 'शरीर' शब्द का जो नियतस्वलक्षणभूत अर्थ है उसे ही संकेतित करता है, किन्तु शरीर की 'जीव' संज्ञा व्यवहारसत्य है क्योंकि यह नियतस्वलक्षणभूत अर्थ को संकेतित न कर जीव और शरीर के संश्लेषसम्बन्ध को लक्षणाशक्ति से बोधित करती है। निश्चय और व्यवहारनय परस्परसापेक्ष हैं। इसलिए निश्चय शब्द व्यवहारसत्य के अस्तित्व को स्वयं द्योतित करता है। आचार्य श्री जयसेन समयसार की टीका में स्पष्ट करते हैं " शुद्धनिश्चयनय से जीव अकर्त्ता, अभोक्ता तथा क्रोधादि से भिन्न है, ऐसी व्याख्या करने पर दूसरे पक्ष में व्यवहारनय से कर्त्ता, भोक्ता तथा क्रोधादि से अभिन्न है, यह अर्थ स्वयमेव निकलता है, क्योंकि निश्चय और व्यवहार परस्पर सापेक्ष हैं। जैसे यह देवदत्त दायीं आँख से देखता है ऐसा कहने पर बायीं आँख से नहीं देखता, यह अर्थ बिना कहे ही सिद्ध होता है । किन्तु जो ऐसा नयविभाग नहीं मानते, उनके मत में जैसे जीव शुद्धनिश्चयनय से अकर्त्ता तथा क्रोधादि से भिन्न होता है वैसे ही व्यवहारनय से भी होता है। ऐसा होने पर क्रोधादिरूप परिणमन के अभाव में सिद्धों के समान कर्मबन्ध का अभाव फलित होता है। कर्मबन्ध के अभाव में संसार का अभाव और संसार के अभाव में सदा मुक्त रहने का प्रसंग उपस्थित होता है। यह प्रत्यक्ष के विरुद्ध है, क्योंकि संसार प्रत्यक्ष दिखाई देता है ।" " १. किं च शुद्धनिश्चयनयेन जीवस्याकर्तृत्वभोक्तृत्वं च क्रोधादिभ्यश्च भिन्नत्वं च भवतीति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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