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६ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
है। अनेकान्त वस्तु से सम्बन्धित जिस सत्य की प्रतीति निश्चयनय से होती है वह परमार्थसत्य है और जिसका अनुभव व्यवहारनय से होता है वह व्यवहारसत्य या लौकिकसत्य है। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये स्वत:सिद्ध स्वतन्त्र मूलपदार्थ परमार्थसत्य हैं।' तथा जीव और पुद्गल के संयोग से सिद्ध मनुष्यादि जीवपर्यायें, शरीरादि अजीवपर्यायें, मोहरागादिरूप आस्रव, जीवपुद्गलसंश्लेषरूप बन्ध, पाप-पुण्य, संवर, निर्जरा और मोक्ष व्यवहार सत्य हैं। इसीलिए इन्हें व्यावहारिक नौ पदार्थ कहा गया है। इनमें भी जो आस्रवादि तत्त्व जीव से सम्बद्ध हैं अर्थात् चेतनात्मक हैं वे परमार्थसत्य हैं, जो पुद्गल से सम्बद्ध हैं अर्थात् जड़स्वभावात्मक हैं वे व्यवहारसत्य हैं। आत्मा का स्वकीय शुद्ध परिणाम मोक्ष का साक्षात् मार्ग है इसलिए वह परमार्थसत्य है, आत्मा का ही शुभपरिणाम मोक्षमार्ग का साधक है इसलिए वह व्यवहारसत्य है।
जीव का स्वतःसिद्ध चैतन्यस्वभाव परमार्थसत्य है, पुद्गल कर्मों के निमित्त से उत्पन्न मोहरागादिभाव व्यवहारसत्य है। कर्मनिमित्तक देव, मनुष्य, तिर्यक, नारक एवं सिद्ध पर्यायें भी व्यवहारसत्य हैं। केवलज्ञान तथा सर्वज्ञत्व भी नैमित्तिकभाव होने से व्यवहारसत्य हैं।
आत्मा और उसके दर्शनज्ञानचारित्रादि धर्मों में जो प्रदेशगत मौलिक अभेद है वह परमार्थसत्य है तथा जो संज्ञादिगत बाह्य भेद है वह व्यवहारसत्य है। आत्मा
और पुद्गलादि परद्रव्यों की प्रदेशगत मौलिक भिन्नता परमार्थसत्य है तथा संश्लेष, संयोग, निमित्तनैमित्तिक आदि बाह्य सम्बन्ध व्यवहारसत्य हैं। अपने दर्शनज्ञानादि ( ख ) “अमीषु तीर्थप्रवृत्तिनिमित्तमभूतार्थनयेन व्यपदिश्यमानेषु जीवाजीवपुण्यपापास्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षलक्षणेषु नवतत्त्वेषु।"
समयसार/आत्मख्याति/गाथा १३ १. ( क ) "इमौ हिं जीवाजीवौ पृथग्भूतास्तित्वनिर्वृत्तत्वेन भिन्नस्वभावभूतौ मूलपदार्थी। जीवपुद्गलसंयोगपरिणामनिर्वृत्ताः सप्तान्ये च पदार्थाः।" ।
पंचास्तिकाय/तत्त्वदीपिका/गाथा १०८ ( ख ) “निश्चयमनारूढाः परमार्थसत्यं भगवन्तं समयसारं न पश्यन्ति।"
समयसार/आत्मख्याति/गाथा ४१३ (ग ) "गगनादिवत् पारमार्थिको वस्तुविशेषोऽस्मि।" वही/गाथा ७३ २. “नारकादिजीवविशेषाजीवपुण्यपापास्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षलक्षणव्यावहारिकनव
तत्त्वेभ्य: ... .।" वही/गाथा ३८ ३. मोत्तूणणिच्छयटुं ववहारेण विदुसा पवटैति ।
परमट्ठमस्सिदाण दु जदीण कम्मक्खओ विहिओ ।। समयसार/गाथा १५६
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