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________________ २ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन इस व्याख्य कराता है और पर्यायार्थिक विशेषरूप के। उदाहरणार्थ, जब पर्यायार्थिक नेत्र को बन्द कर केवल द्रव्यार्थिक से देखते हैं तब जीवद्रव्य की नारक, तिर्यक्, मनुष्य, देव और सिद्ध पर्यायों में ये पर्यायें दिखाई नहीं देतीं, केवल उनमें अवस्थित वही-वही जीवद्रव्य दिखाई देता है, जिससे ये सब अन्य-अन्य पर्यायें एक उसी जीवद्रव्य के रूप में ( अनन्य ) प्रतीत होती हैं। किन्तु, जब द्रव्यार्थिक नेत्र को बन्दकर केवल पर्यायार्थिक से अवलोकन करते हैं तब उस एक जीवद्रव्य में जीवद्रव्य दिखाई नहीं देता, केवल उसमें अवस्थित नारक, तिर्यक्, मनुष्य, देव और सिद्ध, ये अनेक पर्यायें दिखाई देती हैं, जिससे वही जीवद्रव्य अन्य-अन्य रूपों में दृष्टिगोचर होता है। जब दोनों नेत्रों को एक साथ खोलकर इस ओर भी देखते हैं और उस ओर भी, तब नारकादि पर्यायों में अवस्थित जीवसामान्य और जीवसामान्य में अवस्थित नारकादि पर्यायरूप विशेष एक ही समय में दिखाई देते हैं। इस तरह क्रमश: एकएक नेत्र से देखने पर वस्तु के एक-एक पक्ष के दर्शन होते हैं और दोनों नेत्रों से एक साथ देखने पर सम्पूर्ण वस्तु का अवलोकन होता है। सम्पूर्ण वस्तु का अवलोकन करने पर वस्तु के अन्यत्व और अनन्यत्व धर्मों में विरोध प्रतीत नहीं होता।" इस व्याख्या से स्पष्ट होता है कि नय और प्रमाण नेत्रों के समान वस्तु के स्वरूप को जानने के साधन हैं। यह व्याख्यान नय और प्रमाण के लक्षणों को भी सरलतया बोधगम्य बना देता है। वस्तु के परस्परविरुद्ध दो पक्षों में से एक समय में एक ही पक्ष से वस्तु का परामर्श करनेवाली ज्ञाता की एकाकी दृष्टि का १. सर्वस्य हि वस्तुनः सामान्यविशेषात्मकत्वात् तत्स्वरूपमुत्पश्यतां यथाक्रमं सामान्य विशेषौ परिच्छिन्दती द्वे किल चक्षुषी, द्रव्यार्थिकं पर्यायार्थिकं चेति। तत्र पर्यायार्थिकमेकान्तनिमीलितं विधाय केवलोन्मीलितेन द्रव्यार्थिकेन यदावलोक्यते तदा नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायात्मकेषु विशेषेषु व्यवस्थितं . जीवसामान्यमेकमवलोकयतामनवलोकितविशेषाणां तत्सर्वं जीवद्रव्यमिति प्रतिभाति। यदा तु द्रव्यार्थिकमेकान्तनिमीलितं विधाय केवलोन्मीलितेन पर्यायार्थिकेनावलोक्यते तदा जीवद्रव्ये व्यवस्थितान्नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायत्मकान् विशेषाननेकानवलोकयतामनवलोकितसामान्यानानामन्यदन्यत् प्रतिभाति। द्रव्यस्य तत्तद्विशेषकाले तत्तद्विशेषेभ्यस्तन्मयत्वेनानन्यत्वाद् गणतृणपर्णदारुमयहव्यवाहवत्। यदा तु ते उभे अपि द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिके तुल्यकालोन्मीलिते विधाय तत इतश्चावलोक्यते तदा नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायायेषु व्यवस्थितं जीवसामान्यं जीवसामान्ये च व्यवस्थिता नारक-. तिर्यङ्मनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायात्मका विशेषाश्च तुल्यकालमेवावलोक्यन्ते। तत्रैकचक्षुरवलोकनमेकदेशावलोकनं, द्विचक्षुरवलोकनं सर्वावलोकनम्। ततः सर्वावलोकने द्रव्यस्यान्यत्वमनन्यत्वं च न विप्रतिषिध्यते।' प्रवचनसार/तत्त्वदीपिका २/२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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