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प्रथम अध्याय निश्चय और व्यवहार नयों की पृष्ठभूमि
वस्तु अनेकरूपात्मक है, जैसे आत्मा द्रव्यदृष्टि से नित्य है, पर्यायदृष्टि से अनित्य; द्रव्यदृष्टि से एक स्वभावात्मक है, पर्यायदृष्टि से अनेकस्वभावात्मक; द्रव्यदृष्टि से भेदरहित है, पर्यायदृष्टि से भेदसहित; द्रव्यदृष्टि से अबद्ध है, पर्यायदृष्टि से बद्ध; द्रव्यदृष्टि से रागादिशून्य है, पर्यायदृष्टि से रागादियुक्त। इन परस्पर विरुद्ध पक्षों में से किसी एक पक्ष से वस्तु को देखनेवाली ज्ञाता ( प्रमाता ) की दृष्टि नय कहलाती है।
नय : एक नेत्र आगम में नय को नेत्र की उपमा दी गई है जिससे स्पष्ट होता है कि नय वस्तु के पक्षविशेष को जानने के साधन हैं। आचार्य माइल्लधवल कहते हैं -
जीवा पुग्गलकालो धम्माधम्मा तहेव आयासं ।
णियणियसहावजुत्ता दट्ठव्वा णयपमाणणयणेहिं ।।'
अपने-अपने प्रतिनियत स्वभाव से युक्त जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल को नय और प्रमाणरूपी नेत्रों से देखना चाहिए।
उन्होंने यह भी कहा है कि जो नयरूपी दृष्टि से रहित हैं उन्हें वस्तु के स्वरूप का ज्ञान नहीं हो सकता और वस्तुस्वरूप के ज्ञान से रहित जीव सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है ? २ कार्तिकेयानुप्रेक्षाकार का भी कथन है कि पक्षविशेष का आश्रय लेकर न देखा जाय तो वस्तु के नित्यत्व, अनित्यत्व आदि धर्म दिखाई नहीं देते : 'निरवेक्खं दीसदे णेव'।
आचार्य अमृतचन्द्र प्रवचनसार की ११४वी गाथा की व्याख्या करते हुए कहते हैं -
___“समस्त वस्तुएँ सामान्य और विशेष रूपों से युक्त हैं। उनका दर्शन कराने वाले दो नेत्र हैं : द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। द्रव्यार्थिक सामान्य रूप के दर्शन १. द्रव्यस्वभावप्रकाशकनयचक्र, गाथा ३. २. जे णयदिट्ठिविहीणा ताण ण वत्थुसहावउवलद्धि ।।
वत्थुसहावविहीणा सम्मादिट्ठी कहं हुति ।। वही, गाथा १८१ ३. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा २६१.
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