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________________ H २४८ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन द्वारा ये सर्वथा अभूतार्थ नहीं कहे गये हैं, अपितु व्यवहारनय की अपेक्षा इन्हें वह भूतार्थ स्वीकार करता है, वे लोग इन्हें सर्वथा अभूतार्थ मान लेते हैं और निश्चयाभासी बन जाते हैं। इसी प्रकार जीव और पुद्गल की अनादि बन्धपर्याय को व्यवहारनय से भूतार्थ कहा गया है । अतः जो लोग इस तथ्य से अनभिज्ञ हैं कि व्यवहारनय के द्वारा उसे कथंचित् भूतार्थ कहा गया है, सर्वथा नहीं, निश्चयनय की अपेक्षा वह उसे अभूतार्थ भी स्वीकार करता है, वे लोग बन्धपर्याय को सर्वथा भूतार्थ मानकर व्यवहाराभासी बन जाते हैं। दोषपूर्ण व्याख्याएँ एकान्तवाद का यह सबसे बड़ा कारण है। जनसामान्य विद्वानों के द्वारा ही शास्त्रों का मर्म समझने में समर्थ होता है। उन पर जनसाधारण की बड़ी श्रद्धा होती है। इसलिए वह विद्वज्जनों के कथन को ब्रह्मवाक्य समझकर स्वीकार कर लेता है। शास्त्रों का स्वयं स्वाध्याय करने की न तो साधारण लोगों में बौद्धिक क्षमता होती है, न अवकाश । अतः उनसे सीधे तत्त्वनिर्णय करने का अवसर विरलों को ही मिल पाता है। जिन्हें मिल पाता है उनमें भी आगम के गूढ़ अर्थ को समझने में कोई-कोई ही समर्थ होते हैं । अतः जनसामान्य का एकान्तवादी या अनेकान्तवादी बनना प्रमुखतः विद्वानों की व्याख्याओं पर निर्भर है। वर्तमान में एकान्तवाद का प्रसार करने में उनका प्रमुख हाथ है | आगम के वचनों को अनेक विद्वानों ने भ्रान्तरूप में ग्रहण किया है और उनकी भ्रान्तिपूर्ण व्याख्या करने में वे कोई कमी नहीं रख रहे हैं। इस कार्य में वे पूर्ण बुद्धिकौशल एवं पाण्डित्य का प्रयोग कर रहे हैं, जिससे सर्वसाधारण की बुद्धि सरलता से एकान्तवाद में दीक्षित हो रही है। इस प्रकार के ज्ञानी आगमवचनों की जो दोषपूर्ण व्याख्याएँ करते हैं उनके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं १. असद्भूतव्यवहारनय का विषय वस्तुधर्म नहीं है, उपचारकथनमात्र है। २. असद्भूत व्यवहारनय अज्ञानियों का व्यवहार है। ३. निमित्त अकिंचित्कर है। एक द्रव्य के परिणाम को दूसरे द्रव्य के परिणाम का हेतु कहना कथनमात्र है। ४. निश्चय और व्यवहार में परस्परसापेक्षता नहीं है। ५. निश्चयधर्म और व्यवहारधर्म में साध्य-साधकभाव नहीं है। ६. शुभपरिणाम मात्र बन्ध का कारण है। अतः वह सर्वथा हेय है। १. समयसार /गाथा १३-१४ ― Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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