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________________ निश्चयाभास एवं व्यवहाराभास / २४९ ७. केवल वस्तु-व्यवस्था समझने के लिए निश्चय और व्यवहार दोनों नय कार्यकारी हैं। साधना के लिए एक निश्चयनय ही उपादेय है। इनका तथा इस प्रकार की अनेक दोषपूर्ण व्याख्याओं का विस्तृत वर्णन पूर्व अध्यायों में किया जा चुका है। विद्वज्जनों की ये दूषित व्याख्याएँ जनसामान्य की बुद्धि को एकान्तवाद से दूषित कर रही हैं। एकान्तप्रवचन एकान्तवाद का यह अन्यतम हेतु है । तत्त्व अनेकान्त है । अनेकान्त तत्त्व का बोध कराने के लिए उसके उभयपक्षों का कथन आवश्यक है। किन्तु अनेक प्रवचनकर्त्ता एक पक्ष का ही कथन करते हैं ( अथवा एक पक्ष पर ही अनावश्यक बल देते हैं ), दूसरे पक्ष की उपेक्षा करते हैं। इससे जिज्ञासुओं या श्रोताओं की दृष्टि में वस्तु का एक ही पक्ष आ पाता है, जिससे वस्तु के विषय में एकान्त धारणा बन जाती है। उदाहरणार्थ, सम्यक्त्वसहित शुभपरिणाम केवल पुण्यबन्ध का कारण नहीं है, परम्परया मोक्ष का भी हेतु है, किन्तु कुछ आधुनिक प्रवचनकार उसकी बन्धहेतुता का ही वर्णन करते हैं, पारम्परिक मोक्षहेतुता की चर्चा नहीं करते, और कुछ उसकी मोक्षहेतुता पर ही बल देते हैं, बन्धहेतुता के विषय में मौन हो जाते हैं। इसी प्रकार कोई व्यवहारमोक्षमार्ग की हेयता का ही कथन करता है और कोई उसकी उपादेयता पर ही प्रकाश डालता है। इससे श्रोताओं के मन में उक्त प्रकार की एकान्त धारणाएँ बन जाती हैं।. आचार्य अमृतचन्द्र ने एकान्तप्रवचन की हानियाँ बतलाते हुए कहा है कि तीर्थप्रवृत्ति के निमित्त परमार्थसत्य के साथ-साथ व्यवहारसत्य का दर्शाया जाना भी आवश्यक है, क्योंकि शरीर और जीव में जो स्वभावगत भेद है केवल उसी को दर्शाने से लोग उनमें सर्वथा भेद समझ लेंगे और प्राणियों के शरीर का घात करने में हिंसा नहीं मानेंगे। इससे वे निःसंकोच प्राणियों का वध करेंगे जिससे पापबन्ध होगा और मोक्ष असम्भव हो जायेगा । इसी प्रकार आत्मा और रागादि भावों में जो स्वभावगत भिन्नता है, केवल उसी का वर्णन करने से श्रोतागण उनमें सर्वथा भिन्नता मान लेंगे और अपने को पूर्ण शुद्ध समझकर मोक्ष का प्रयत्न ही न करेंगे।' इस प्रकार एकान्तप्रवचन अत्यन्त हानिकारक है। विद्वानों के एकान्तप्रवचनों से न केवल श्रोता भ्रमित हो रहे हैं, विद्वज्जगत् में भी भयंकर द्वन्द्व उत्पन्न हो गया है। इसका निर्देश करते हुए क्षुल्लक जिनेन्द्रवर्णी लिखते हैं १. समयसार / आत्मख्याति / गाथा ४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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