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________________ निश्चयाभास एवं व्यवहाराभास / २४७ ध्यान आकृष्ट करने के लिए बारम्बार प्रयत्न किया है । अनेकान्त-सिद्धान्त से अनभिज्ञ होने पर मनुष्य अनेकान्तदृष्टि से आगमवचनों का विचार नहीं करता, अतएव वह एकान्तवादी हो जाता है। इसके अतिरिक्त जो अनेकान्त - सिद्धान्त को यथार्थरूप से नहीं जानता, वह भी एकान्तवादी हो जाता है। ऐसे ही लोगों के विषय में पंडित टोडरमल जी ने कहा है 'मिथ्यादृष्टि मनुष्य अनेकान्तरूप वस्तु को तो मानता परन्तु यथार्थभाव को पहचान कर नहीं मानता।' आज के कुछ विद्वान् मोक्षमार्ग में व्यवहारनय को उपादेय नहीं मानते, यह मोक्षमार्ग की अनेकान्तात्मकता से अनभिज्ञ होने का ही परिणाम है। है, नयस्वरूप से अनभिज्ञता - एकान्तवाद का यह दूसरा कारण है। उदाहरणार्थ, असद्भूतव्यवहारनय के स्वरूप से सम्यग्रूपेण परिचित न होने के कारण कुछ विद्वान् उसे वस्तुधर्म का प्रतिपादक न मानकर मात्र अन्यत्र प्रसिद्ध धर्म का अन्यत्र समारोप करनेवाला मानते हैं। इस मान्यता के कारण वे असद्भूतव्यवहारनय से वस्तु में बतलाए जानेवाले निमित्त - नैमित्तिकादि सम्बन्धों को असत्य मान लेते हैं और कार्य की उत्पत्ति में एकमात्र उपादान को ही हेतुरूप से स्वीकार करते हैं जो एकान्तवाद है । इसी एकान्तधारणा के फलस्वरूप अनेक विचारकों ने निश्चयधर्म ( निश्चयमोक्षमार्ग ) और व्यवहारधर्म ( व्यवहारमोक्षमार्ग ) में साध्य - साधकभाव का निषेधकर केवल निश्चयधर्म को ही मोक्ष के लिए अवलम्बनीय ठहराया है। यह नयस्वरूप की अनभिज्ञता से फलित होनेवाले एकान्तवाद का उदाहरण है। ,१ सापेक्षता से अनभिज्ञता निश्चय और व्यवहार नय परस्पर सापेक्ष हैं। जो कथन निश्चयनय की अपेक्षा अभूतार्थ ( असत्य ) है, वह व्यवहारनय की अपेक्षा भूतार्थ होता है। जो धर्म निश्चयनय का विषय नहीं है, उसके अस्तित्व का वह ( निश्चयनय ) सर्वथा निषेध नहीं करता, अपितु व्यवहारनय की अपेक्षा उसे मौनरूप से स्वीकार करता है। इसलिए निश्चयनय के अनुसार जो अभूतार्थ है, उसे सर्वथा अभूतार्थ नहीं मान लेना चाहिए। किन्तु अनेक लोग निश्चय और व्यवहार की इस परस्परसापेक्षता से अनभिज्ञ होते हैं। इस कारण निश्चयनय के द्वारा जिसे अभूतार्थ कहा गया है, उसे सर्वथा अभूतार्थ मान लेते हैं। उदाहरणार्थ, आगम में निश्चयनय की अपेक्षा जीव और पुद्गल के परस्पर बन्ध को अभूतार्थ कहा गया है तथा दोनों की बन्धपर्याय से उत्पन्न जीवादि नौ तत्त्व भी अभूतार्थ बतलाये गये हैं। इसलिए जो यह नहीं जानते कि निश्चयनय २ १. मोक्षमार्गप्रकाशक / सातवाँ अधिकार २. समयसार / आत्मख्याति /गाथा १३ - १४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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