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________________ २४६ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन वर वयतवेहि सग्गो मा दुक्खं होउ निरइ इयरेहिं । छायातवट्ठियाणं पडिवालंताण गुरुभेयं ।।' - व्रत और तप के द्वारा स्वर्ग प्राप्त होना अच्छा है, किन्तु अव्रत और अतप के द्वारा नरक के दुःख भोगना अच्छा नहीं। छाया में बैठकर प्रतीक्षा करनेवालों और धूप में बैठकर प्रतीक्षा करनेवालों की स्थितियों में बड़ा अन्तर होता है। तात्पर्य यह कि स्वर्ग में समय व्यतीत करते हुए मोक्ष के अनुकूल अवसर की प्रतीक्षा करना अकष्टकर होता है और नरक में रहते हुए प्रतीक्षा करना कष्टकर। नवीं शताब्दी में प्रसिद्ध ग्रन्थ आलापपद्धति के रचयिता आचार्य देवसेन हुए हैं। उन्होंने 'दर्शनसार' नामक ग्रन्थ में एकान्तमतावलम्बी जैनाभासों की चर्चा की है। कुन्दकुन्द-साहित्य के यशस्वी टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र तथा आचार्य जयसेन का काल क्रमश: दसवीं एवं तेरहवीं शताब्दी ईसवी है। उन्होनें पञ्चास्तिकाय की १७२वीं गाथा की टीका में दो प्रकार के एकान्तवादियों का वर्णन किया है तथा अठारहवीं शताब्दी में हुए पंडित टोडरमल जी ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ मोक्षमार्गप्रकाशक में तीन प्रकार के जैन एकान्तवादियों का विस्तृत विवरण दिया है। इसका पूर्व में निर्देश किया जा चुका है। वर्तमान में निश्चय और व्यवहार को लेकर प्रबल विवाद प्रचलित है जिससे एकान्तवादियों के अस्तित्व की सूचना मिलती है। वैचारिक विवाद का कारण सदा एकान्तवाद ही हुआ करता है। जहाँ अनेकान्तदृष्टि है वहाँ विवाद के लिए अवकाश नहीं होता। दोनों में अन्धकार और प्रकाश के समान विरोध है। एकान्तवाद के हेतु अब विचारणीय है कि एकान्तवाद के कारण क्या हैं ? जिनेन्द्रदेव के अनेकान्तमत को उनके अनुयायी एकान्तरूप में ग्रहण क्यों कर लेते हैं ? इसके निम्नलिखित कारण हैं - अनेकान्त-सिद्धान्त से अनभिज्ञता यह सर्वप्रथम कारण है। अनेकान्त जैनसिद्धान्त का प्राण है। इसमें साध्य और साधन दोनों अनेकान्तात्मक हैं। यह एक ऐसा तथ्य है जिससे मनुष्य निसर्गत: अनभिज्ञ होता है। इसीलिए आचार्यों ने जैनदर्शन की अनेकान्तात्मकता की ओर १. मोक्खपाहुड/गाथा २५ २. “परमागमस्य जीवं ... नमाम्यनेकान्तम्।” पुरुषार्थसिद्ध्युपाय/कारिका २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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