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________________ निश्चयाभास एवं व्यवहाराभास / २४५ सम्यग्दृष्टि श्रमण का शुभोपयोग शुद्धोपयोग का परम्परया उपादान कारण है। इस अपेक्षा से आगम में उसे व्यवहारनय से शुद्धोपयोग का कारण कहा गया है। किन्तु उभयैकान्तवादियों की दृष्टि में निश्चय और व्यवहार में 'अपेक्षा' की दृष्टि से कोई फर्क नहीं होता, इसलिए वे शुभोपयोग को शुद्धोपयोग का परम्परया उपादान कारण न मानकर साक्षात् उपादान कारण मान लेते हैं। यह श्रद्धा मिथ्या है, क्योकि 'उपादानकारणसदृशं कार्यं भवति'' ( उपादान कारण के सदृश ही कार्य होता है ) इस नियम के अनुसार जैसे शुभोपयोग अशुभोपयोगपरिणत आत्मा से उत्पन्न नहीं हो सकता, वैसे ही शुद्धोपयोग शुभोपयोगपरिणत आत्मा से उद्भूत नहीं हो सकता। शुभोपयोग को छोड़कर शुद्धोपयोग के प्रयत्न में परिणत आत्मा से ही शुद्धोपयोग की उत्पत्ति सम्भव है। इन निदर्शनों से उभयाभास का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। एकान्तवादियों का इतिहास जैन एकान्तवादियों का इतिहास बहुत पुराना है। आचार्य कुन्दकुन्द द्वितीय शताब्दी ( ईसवी ) में हुए थे। उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ समयसार में जैनों में प्रचलित एकान्तवाद की चर्चा की है, जिससे ज्ञात होता है कि एकान्तवाद का आश्रय लेनेवाले कुन्दकुन्द के पूर्व से चले आ रहे थे। वस्तुत: आचार्य कुन्दकुन्द ने व्यवहारैकान्त का निराकरण करने के लिए ही समयसार की रचना की थी। सम्पूर्ण समयसार में एकान्तव्यवहारवादियों की मान्यताओं का खण्डन किया गया है। व्यवहारैकान्त अज्ञानियों का लक्षण है, इसलिए ज्ञानियों का लक्षण बतलाते हुए वे लिखते हैं - मोत्तूण णिच्छयटुं ववहारे ण विदुसा पवट्ठति । परमट्ठमस्सिदाण दु जदीण कम्मक्खओ विहिओ ।। - ज्ञानी निश्चयनय के विषय को छोड़कर ( निश्चयनिरपेक्ष होकर ) व्यवहार में प्रवृत्त नहीं होते, क्योंकि परमार्थ का आश्रय लेने वाले यतियों के ही कर्मों का क्षय होता है। व्रतादि शुभपरिणाम को सर्वथा हेय माननेवाले निश्चयैकान्तवादियों का अस्तित्व भी उस समय था। उन्हें व्रत-तप आदि की कथंचित् उपादेयता दर्शाने के लिए कुन्दकुन्ददेव ने यह गाथा कही है - १. समयसार/तात्पर्यवृत्ति/गाथा, १२८-१२९ २. वही/गाथा १५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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