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________________ उपादाननिमित्तविषयक मिथ्याधारणाएँ । २३५ कर्मों की प्रेरकता स्पष्ट करने के लिए ही आचार्य कुन्दकुन्द ने आत्मा के रागादिरूप में परिणत होने का दृष्टान्त स्फटिक के रागादिरूप में परिणत होने से दिया है। स्फटिक स्वभाव से स्वच्छ होता है। उसमें जो लालिमा आदि अन्य वर्ण आते हैं वे उन वर्णोंवाले अन्य पदार्थों के संयोग से आते हैं, स्फटिक से प्रकट नहीं होते। इसी प्रकार आत्मा स्वभाव से शुद्ध ( रागादिरहित ) है। उसमें जो रागादिभाव आते हैं वे रागादिप्रकृतिवाले कर्मों के सम्पर्क से आते हैं, आत्मा से प्रकट नहीं होते। इस तथ्य को आचार्य अमृचन्द्र ने निम्न शब्दों में स्पष्ट किया है - - "जैसे स्फटिक पाषाण यद्यपि परिणामस्वभावी है, तो भी स्वभाव से शुद्ध होने के कारण रक्तपीतादि अवस्था का निमित्त न बन पाने से स्वयं रक्तपीतादिरूप से परिणमित नहीं होता, रक्तपीतादिप्रकृतिवाले ( जपापुष्पादि ) परद्रव्य का निमित्त प्राप्त होने पर ही अपने शुद्धस्वभाव से च्युत होकर रक्तपीतादि दशा को प्राप्त होता है, वैसे ही आत्मा यद्यपि परिणामस्वभावी है, तो भी स्वभाव से शुद्ध होने के कारण रागादिभावों का निमित्त न बन पाने से, स्वयं रागादिरूप से परिणत नहीं होता, रागादि- स्वभाववाले पुद्गलकर्मों का निमित्त मिलने पर ही अपने शुद्धस्वभाव से च्युत होकर रागादिभाव को प्राप्त होता है, यह वस्तुस्वभाव है।" वे और भी स्पष्ट करते हुए कहते हैं – “आत्मा अपने आप तो रागादिभावों का कारक है ही नहीं। पर द्रव्य ( पुद्गलकर्म ) ही आत्मा के रागादिभावों का निमित्त पूर्व में निर्देश किया गया है कि कर्मों का निमित्तस्वरूप विशेष प्रकार का है, सामान्य प्रकार का नहीं। वे ऐसे निमित्त हैं, जिनके कारण आत्मा स्वाभाविक परिणमन छोड़कर विपरीत परिणमन करने लगता है। इसे आचार्य अमृतचन्द्र ने इस प्रकार समझाया है - "जैसे नीले, हरे और पीले पदार्थों के सम्पर्क से स्फटिक पाषाण के स्वच्छ स्वरूप में नील, हरित और पीत विकार आ जाते हैं, वैसे ही मिथ्यादर्शन-ज्ञानचारित्रस्वभाववाले मोहकर्म के संयोग से आत्मा के निर्विकार परिणाम में मिथ्यादर्शन, १. “...' तथा केवलः किलात्मा परिणामस्वभावत्वे सत्यपि स्वस्य शुद्धस्वभावत्वेन रागादिनिमित्तत्वाभावाद् रागादिभिः स्वयं न परिणमते, परद्रव्येणैव स्वयं रागादिभावापन्नतया स्वयं रागादिनिमित्तभूतेन शुद्धस्वभावात् प्रच्यवमान एव रागादिभिः परिणम्येत, इति तावद्वस्तुस्वभावः।" समयसार/आत्मख्याति/गाथा २७८-२७९ २. “आत्मात्मना रागादीनामकारक एव। ततः परद्रव्यमेवात्मनो रागादिभावनिमित्तमस्तु।" वही/गाथा २८३-२८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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