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________________ २३४ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन कथंचित् अपरिणामी भी हैं। इसे आचार्य जयसेन ने निम्नलिखित विवेचन में स्पष्ट किया है - ___“यदि कहा जाय कि पुद्गलकर्मरूप द्रव्यक्रोध उदय में आकर जीव को बलपूर्वक भावक्रोधरूप से परिणमा देता है तो प्रश्न है कि वह अपरिणामी जीव को परिणमाता है या परिणामी को ? अपरिणामी को तो परिणमा नहीं सकता, क्योंकि जो शक्ति वस्तु में स्वत: नहीं है, उसे कोई दूसरा उत्पन्न नहीं कर सकता। जपापुष्पादि पदार्थ जिस प्रकार स्फटिक में उपाधि उत्पन्न कर देते हैं, वैसे लकड़ी, खम्भे आदि में नहीं कर सकते, क्योंकि वे स्वत: परिणामी नहीं हैं। इसके विपरीत यदि कर्म एकान्ततः परिणामी जीव को परिणमाते हैं तो उदय में आये हुए द्रव्यक्रोधरूप निमित्त के बिना भी वह भावक्रोधरूप परिणमित हो सकता है, क्योंकि वस्तु में जो स्वभावभूत शक्तियाँ हैं वे पर की अपेक्षा नहीं करती ( अर्थात् यदि रागादिभाव जीव में ही शक्तिरूप में विद्यमान हों तो कर्मरूप निमित्त की आवश्यकता नहीं होगी )। इस स्थिति में मुक्तात्माओं में भी भावक्रोधादि उत्पन्न होने लगेंगे। किन्तु यह आगमविरुद्ध होने से मान्य नहीं है।"२ अत: सिद्ध है कि जीव में स्वभावभूत कथंचित्परिणामित्व शक्ति है। यहाँ आचार्य जयसेन ने जीव को सर्वथा परिणामी न बतलाकर कथंचित परिणामी बतलाया है, जिसका फलितार्थ यह है कि वह कथंचित् अपरिणामी भी है, और कथंचित् अपरिणामी होने से ( रागादि की शक्ति स्वयं में न होने से ) ही रागादिरूप परिणमन के लिए कर्मोदयरूप निमित्त की आवश्यकता है। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कर्मोदयरूप निमित्त कथंचित् अपरिणामी को परिणमाते हैं, अत: कर्म प्रेरक निमित्त हैं। धर्मादि द्रव्य कथंचित् अपरिणामी को नहीं परिणमाते, अपितु जो गत्यादि में स्वयं परिणत हो जाता है उसके ही गत्यादि परिणमन में सहायता करते हैं, इसलिए वे उदासीन हैं। मोहादिप्रकृतिक कर्म ही चिद्विकार के हेतु तात्पर्य यह कि कर्मों के मोहरागात्मकस्वभाव से प्रभावित होकर मोहरागात्मक हो जाना ही जीव का कथंचित् परिणामी होना है। यह उसकी स्वभावभूत शक्ति है। यही स्वपरप्रत्ययपरिणमन है। इससे इस तथ्य की विज्ञप्ति होती है कि आत्मा के परिणामों में जो रागादि विकार आते हैं वे कर्मप्रेरित ही हैं। १. “यदुक्तं पूर्वं पुण्यपापादिसप्तपदार्थजीवपुद्गलसंयोगपरिणामनिवृत्तास्ते च जीवपुद्गल___ यो: कथञ्चित्परिणामत्वे सति घटन्ते।" समयसार/तात्पर्यवृत्ति/गाथा १२१-१२५ २. वही/तात्पर्यवृत्ति/गाथा १२१-१२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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