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उपादाननिमित्तविषयक मिथ्याधारणाएँ / २३३
हैं।
ये तथ्य प्रमाणित करते हैं कि कर्म, धर्मादि द्रव्यों से भिन्न प्रकार के निमित्त हैं जिनका स्वरूप उदासीन रूप से सहायक होना नहीं है, बल्कि जीव के स्वभाव का घात करना तथा उसे परतन्त्र बनाना है । इस अर्थ में ही उन्हें प्रेरक कहा गया
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आगम में जो यह कहा गया है कि जीव कर्मोदय के निमित्त से स्वयं रागादिरूप से परिणत होता है, कर्म उसे बलपूर्वक नहीं परिणमाते, यह जीव की कथंचित् परिणामित्वशक्ति को दर्शाने के लिए कहा गया है, अर्थात् यह बतलाने के लिए कि जीव में कर्मों की रागादि प्रकृति से प्रभावित होने की स्वाभाविक शक्ति है, इसलिए वह उससे प्रभावित होकर रागादिरूप से परिणत हो जाता है। यदि यह शक्ति न होती तो कर्म अपनी रागादिप्रकृति का प्रभाव बलपूर्वक उस पर न छोड़ पाते । जीव के इस परिणामित्वगुण की उपमा आचार्य कुन्दकुन्द ने स्फटिकमणि की प्रतिबिम्ब- ग्रहणशक्ति ( स्वच्छता ) से दी है। इस शक्ति के होने के कारण ही जपापुष्पादि के संसर्ग से उनका रंगबिरंगा स्वरूप स्फटिकमणि में प्रतिबिम्बित होता है। इसी प्रकार जिस योग्यता के कारण जीव आत्मसम्बद्ध कर्मों की रागादिप्रकृति से प्रभावित होकर रागादिरूप हो जाता है, वह योग्यता ही जीव की परिणामित्वशक्ति है। इसी स्वभावभूत परिणमन शक्ति को दृष्टि में रखकर जीव को रागादि भावों का उपादानकर्त्ता तथा कर्मोदय को निमित्तमात्र कहा जाता है। स्वपर प्रत्ययपरिणमन
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किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि रागादिभाव भी जीव के स्वभाव से ही उद्भूत होते हैं और कर्म उनकी उत्पत्ति में धर्मादिद्रव्यों के समान उदासीनरूप से सहायता मात्र करते हैं। यदि ऐसा हो तो रागादिभाव जीव के स्वभाव सिद्ध होंगे और उनकी उत्पत्ति के लिए कर्मरूप निमित्त की आवश्यकता सिद्ध न होगी, क्योंकि गत्यादिरूप परिणमन के लिए धर्मादिद्रव्यरूप निमित्त की तथा अन्य स्वाभाविक परिणमन के लिए केवल कालद्रव्यरूप निमित्त की आवश्यकता होती है। आत्मा का रागादिभावरूप परिणमन स्वपरप्रत्यय- परिणमन है, जो कुछ स्वतः होता है, कुछ कर्मों के निमित्त से। इस दृष्टि से आत्मा और पुद्गल कथंचित् ही परिणामी हैं,
१. " यथा कोऽपि तस्करो यद्यपि मरणं नेच्छति तथापि तलवरेण गृहीतः सन् मरणमनुभवति तथा सम्यग्दृष्टिः यद्यप्यात्मोत्थसुखमुपादेयं च जानाति विषयसुखं च हेयं जानाति तथापि चारित्रमोहोदयतलवरेण गृहीतः सन् तदनुभवति ।” समयसार / तात्पर्यवृत्ति/गाथा १९४ २ . वही / आत्मख्याति / गाथा ८९
३. "तस्यां परिणामशक्तौ स्थितायां स जीवः कर्त्ता यं परिणाममात्मनः करोति तस्य स एवोपादानकर्त्ता, द्रव्यकर्मस्तु निमित्तमात्रम् ।" वही / तात्पर्यवृत्ति/गाथा १२१-१२५
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