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________________ २३२ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन पहुँचाते हैं तथा अस्वाभाविक दशा की उत्पत्ति में हेतु बनते हैं। इसीलिए उनके नाम ज्ञानावरण ( ज्ञान को आवृत करनेवाला ), दर्शनावरण ( दर्शन को आवृत करनेवाला ) मोहनीय ( मोहित करनेवाला), अन्तराय ( विघ्न उपस्थित करनेवाला) आदि हैं। ज्ञानावरण कर्म आत्मा के ज्ञानगुण को आवृत करने का ही काम करता है, तभी अज्ञान उत्पन्न होता है। ऐसा नहीं है कि आत्मा में स्वभाव से अज्ञान नामक गुण है और ज्ञानावरण कर्म केवल उसके परिणमन में सहायता करता है। इसी प्रकार, मोहनीय कर्म आत्मा के श्रद्धा, ज्ञान एवं चारित्र गुणों के स्वाभाविक परिणमन में बाधा डालकर उनके मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान एवं मिथ्याचारित्र के रूप में परिणत होने का कारण बनता है। ऐसा नहीं है कि मिथ्यादर्शनादि आत्मा के स्वभावभूत धर्म हैं और आत्मा जब इन धर्मों के रूप में स्वयं परिणत होने के लिए उद्यत होता है, तब मोहनीय उसमें सहायता मात्र कर देता है। धर्मादि द्रव्य जीव के स्वभाव का घात ( आच्छादन, प्रतिबन्ध एवं विपर्यय ) नहीं करते, किन्तु पुद्गल कर्म करते हैं, इसीलिए ज्ञानावरणादि चार कर्मों को घाती कहा गया है। इसके अतिरिक्त जीव के निष्क्रिय रहने पर धर्मादि द्रव्य उसे गति आदि क्रियाओं में प्रवृत्त नहीं करते, किन्तु कर्म जीव के न चाहने पर भी उसे कषायरंजित कर देते हैं। यहाँ तक कि वे उसे कषायप्रतिरोधी साधना में लीन रहने पर भी रागादि के वशीभूत कर देते हैं, जिससे उच्च भूमिका में स्थित साधक को भी समाधि से च्युत होने पर भक्ति आदि शुभराग में लगना पड़ता है। उनके उदय में जीव ग्यारहवें गुणस्थान से नीचे गिर जाता है और निम्न भूमिका में स्थित श्रावक यह जानते हुए भी कि विषयसुख हेय है, फलस्वरूप उससे बचने का प्रयत्न करते हुए भी कर्मोदय के वशीभूत हो विषयसेवन के लिए विवश होते १. (क) “परपरिणतिहेतोर्मोहनाम्नोऽनुभावात्।" समयसार/कलश ३ (ख) “दंसणं अत्तागमपयत्थेसु रुई सद्धा फोसणमिदि एयट्ठो। तं मोहेदि विवरीयं __कुणदि त्ति दंसणमोहणीयं।" धवला/पुस्तक ६/पृ० ३८ २. णाणमवबोहो अवगमो परिच्छेदो इति एयठ्ठो । तमावरेदि त्ति णाणावरणीयं कम्मं ।। धवला ६/१/९-१/५ ३. कावि अउव्वा दीसदि पुग्गलदव्वस्स एरिसी सत्ती । केवलणाणसहावो विणासिदो जाइ जीवस्स ।। कार्तिकेयानुप्रेक्षा/गाथा २११ ४. “केवलणाण-दंसण-सम्मत्त-चारित्त-वीरियाणमणेयभेयभिण्णाणं जीवगुणाणं विरोहित्त णेण तेसिं घादिववदेसादो।" धवला ७/२/१/१५ ५. पञ्चास्तिकाय/तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति/गाथा १३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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