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________________ उपादाननिमित्तविषयक मिथ्याधारणाएँ । २३१ पुद्गलकर्म उसमें सहायता मात्र करते हैं।' आगम में जो पुद्गल कर्मों को प्रेरक कहा गया है, उसकी वे दूसरी ही व्याख्या करते हैं। वे कहते हैं कि पुद्गलकर्म, नोकर्म, मेघ, बिजली, वायु आदि जड़ वस्तुएँ क्रियावान् ( सक्रिय ) हैं। उनकी ईरण ( गति ) क्रिया की प्रकृष्टता अन्य द्रव्यों के क्रिया-व्यापार के समय उनके बलाधान में निमित्त होती है। इस बात को ध्यान में रखकर ही उन्हें प्रेरक कहा गया है। बलाधान के विषय में भी उनका मत है कि कार्योत्पत्ति के समय बल का आधान स्वयं उपादान करता है, किन्तु उसमें निमित्त अन्य' द्रव्य होता है। उनका आशय यही है कि पुद्गलकर्म जीव को रागादिरूप से परिणत होने के लिए प्रभावित नहीं करते, अपितु जब वह स्वयं रागादिरूप से परिणत होने की चेष्टा करता है, तब वे उसमें सहायता कर देते हैं। ‘सहायता कर देते हैं' यह कहना भी उचित नहीं हैं। वे ( पुद्गलकर्मरूप निमित्त ) वहाँ मात्र उपस्थित रहते हैं, यह कहना ही उचित है। यह मत समीचीन नहीं है। आत्मा के साथ संयुक्त पुद्गलकर्म धर्म, अधर्म, आकाश, काल तथा गुरु आदि निमित्तों से भिन्न हैं। इनके समान वे जीव के स्वत: परिणमन में उदासीनरूप से सहायता मात्र नहीं करते, बल्कि उसे इस प्रकार प्रभावित करते हैं कि वह स्वाभाविक क्रिया छोड़कर स्वभाव से विपरीत क्रिया करने लगता है। कर्म इसलिए प्रेरक नहीं कहलाते कि उनकी ईरण ( गति ) क्रिया की प्रकृष्टता जीव के रागादिरूप परिणमन-व्यापार में सहायता मात्र करती है, बल्कि इसलिए कहलाते हैं कि वे अपनी ओर से ऐसा प्रभाव उत्पन्न करते हैं, जिससे जीव स्वभाव से विपरीत रागादिरूपपरिणमन करने लगता है। यद्यपि परिणमनशक्ति जीव में ही है, तथापि कर्मजनित प्रभाव के बिना जीव के परिणमन में रागादि विकार नहीं आ सकता। वह कर्मोदय के प्रभाव से ही सम्भव है। धर्मादि द्रव्य एवं गुरु आदि निमित्त, उपादान के उसी गुण के परिणमन में सहायता करते हैं जो उसमें स्वभावत: है। उसमें न कोई बाधा पहुँचाते हैं, न किसी अस्वाभाविक दशा की उत्पत्ति में हेतु बनते हैं। किन्तु कर्म ठीक इसके विपरीत हैं। वे जीव के स्वभावभूत गुण के परिणमन में सहायता नहीं करते, अपितु बाधा १. “जो क्रियावान् निमित्त प्रेरक कहे जाते हैं वे भी उदासीन निमित्तों के समान कार्योत्पत्ति के समय सहायक मात्र होते हैं।" जैनतत्त्वमीमांसा/प्रथम संस्करण/पृ० ८३ २. जैनतत्त्वमीमांसा/प्रथम संस्करण/पृ० ५३ ३. वही, पृ० ८४, पृ० ९० ४. वही, पृ० ५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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