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________________ २३६ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र ये तीन विकार उत्पन्न हो जाते हैं । ' इस प्रकार चूँकि रागादिप्रकृतिवाले कर्मों के सम्पर्क से ही शुद्ध आत्मा में रागादि विकार की उत्पत्ति होती है, अन्यथा स्वभाव से शुद्ध होने के कारण उसमें ये विकार उत्पन्न नहीं हो सकते, अतः सिद्ध है कि कर्म उदासीन निमित्त नहीं हैं, प्रेरक निमित्त हैं। प्रेरक ही नहीं, आक्रामक और घातक कर्म प्रेरक ही नहीं, आक्रामक और घातक हैं। 'प्रेरक' शब्द सिर्फ बलपूर्वक दिशाविशेष में ले जाने का वाचक है। कर्म तो बलपूर्वक आत्मा पर आक्रमण कर उसकी शक्तियों का घात कर देते हैं। अनादिकाल से घाती कर्मों ने जीव की अनन्तचतुष्टयरूप शक्तियों को दबाकर उसे अज्ञानी, अशक्त, दीन और दुःखी बना रखा है।' वे आत्मा को परतन्त्रता की बेड़ियों में जकड़ते हैं । इसीलिए विद्यानन्द स्वामी ने कर्मों का लक्षण बतलाते हुए कहा है – “जो जीव को परतंत्र करते हैं अथवा जीव जिनके द्वारा परतन्त्र किया जाता है, उन्हें कर्म कहते हैं । " " अज्ञानी ही नहीं, ज्ञानी भी कर्मों की अभिभावक शक्ति से परास्त हो जाते हैं, यह पूर्व में बतलाया जा चुका है। पंडित टोडरमल जी कहते हैं "जब कर्मों का तीव्र उदय होता है तब पुरुषार्थ नहीं हो सकता, साधक ऊपर के गुणस्थानों से भी नीचे गिर जाता है ।"* पंडित आशाधर जी का कथन है – “जिनेन्द्रदेव के उपदेश से विषयों को निरन्तर त्याज्य समझते हुए भी जो चारित्रमोह के उदय से उनका त्याग करने में असमर्थ हैं, उन सम्यग्दृष्टि भव्य जीवों के लिए गृहस्थधर्म की अनुमति दी गई है । "" यह कथन दर्शाता है कि कर्मोदय जीव की शक्ति का हरणकर उसे असमर्थ बना देता है, तभी वह विषयवासनाओं के वशीभूत होता है। कर्मों की अभिभावक १. समयसार / आत्मख्याति /गाथा ८९ २. " आत्मा हि ज्ञानदर्शनसुखस्वभावः संसारावस्थायामनादिकर्मक्लेशसङ्कोचितात्मशक्तिः ।” पञ्चास्तिकाय/तत्त्वदीपिका /गाथा २९ ३. “जीवं परतन्त्रीकुर्वन्ति स परतन्त्रीक्रियते वा यैस्तानि कर्माणि । " ४. मोक्षमार्गप्रकाशक / अधिकार ९ / पृ० ३१४ ५. त्याज्यानजस्रं विषयान्पश्यतोऽपि जिनाज्ञया । मोहात्यक्तुमशक्तस्य Jain Education International आप्तपरीक्षा/टीका/श्लोक ११३ गृहिधर्मोऽनुमन्यते ।। सागारधर्मामृत २ / १ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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