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२२० / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
है। ज्ञानावरण कर्म के उदय में जीव का ज्ञान आवृत होने का निमित्तभाव है, दर्शनावरण के उदय में दर्शन के आवृत होने का, दर्शनमोहनीय के उदय में श्रद्धा के विपरीत दिशा में जाने का और चारित्रमोहनीय के उदय में चारित्र के मोहित होने का निमित्तभाव है। जीव के शुभाशुभभावों में पुद्गल के कर्मरूप से परिणमित होने के अनुकूल स्वभाव है तथा शुद्धभाव में कर्मों के संवर, निर्जरा और मोक्षरूप से परिणमित होने के अनुकूल स्वभाव की सत्ता है।
जब ( जिस काल में ) किसी द्रव्य को अपनी कार्योत्पत्ति के अनुकूल स्वभाववाले द्रव्य का सम्पर्क प्राप्त होता है, तब वह स्वकार्यरूप में परिणमित होता है। अत: पूर्वोक्त विद्वज्जनों का यह कथन ठीक है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य के कार्य में सहायतारूप व्यापार नहीं करता। इसकी आवश्यकता ही नहीं है। पदार्थों के स्वभाव में निमित्तभाव रहने के कारण अनुकूल पदार्थ का संयोग होने पर यह अपने आप होता है।
आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा भी है -
"जीव के परिणामों का हेतु मिलने पर पुद्गल द्रव्य ( स्वयमेव ) कर्मरूप से परिणमित हो जाता है और पुद्गलकर्मों का निमित्त प्राप्त होने पर जीव भी स्वत: शुभाशुभभावरूप से परिणमन करने लगता है।"
यदि निमित्तभूत पदार्थ का स्वभाव ऐसा न हो कि उससे उपादान की कार्यसामर्थ्य का अवरोध दर हो सके, तो उसे निमित्त ही नहीं कहा जा सकता। मात्र रस्म-अदायगी के लिए तो किसी को निमित्त नाम दिया नहीं जाता है। अष्टसहस्री में कहा गया है -
"तदसामर्थ्यमखण्डयदकिञ्चित्करं किं सहकारिकारणं स्यात्।"२
आशय यह है कि कार्योत्पादन-क्षमता होते हुए भी, यदि अनुकूल परिस्थिति का अभाव हो तो उपादान कार्योत्पत्ति में असमर्थ रहता है। उस असामर्थ्य को दूर न करते हुए यदि सहकारी कारण ( निमित्त ) अकिञ्चित्कर बना रहता है, तो क्या वह सहकारी कारण कहला सकता है ?
इस कथन से यही बात पुष्ट होती है कि निमित्तभूत पदार्थ के स्वभाव में ही वह धर्म होता है, जिससे उपादान की कार्य-परिणति में बाधक तत्त्व समाप्त हो जाता है और अनुकूल परिस्थिति निर्मित हो जाती है। १. जीवपरिणामहे, कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति ।
पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमइ ।। समयसार/गाथा ८० २. अष्टसहस्री, पृ० १०५
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