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________________ उपादाननिमित्तविषयक मिथ्याधारणाएँ । २१९ "तदेवं व्यवहारनयसमाश्रयणे कार्यकारणभावो द्विष्ठः सम्बन्धः संयोगसमवायादिवत् प्रतीतिसिद्धत्वात् पारमार्थिक एव न पुन: कल्पनारोपित: सर्वथाप्यनवद्यत्वात्। - व्यवहारनय के आश्रय से परामर्श करने पर दो पदार्थों में रहनेवाला कार्यकारणसम्बन्ध ( निमित्त-नैमित्तिकसम्बन्ध ) संयोग, समवाय आदि सम्बन्धों के समान अनुभव में आता है। अत: अनुभवसिद्ध होने से पारमार्थिक ही है, कल्पनारोपित नहीं। प्रयोजनवश कर्तृकर्मत्व का उपचार सार यह है कि आगम में जहाँ-जहाँ भिन्न पदार्थों में निमित्तनैमित्तिक भाव बतलाया गया है, वहाँ-वहाँ मुख्यरूप से होने के कारण ही बतलाया गया है, उपचार नहीं किया गया है। हाँ, निमित्त-नैमित्तिकसम्बन्ध के कारण निमित्त-नैमित्तिकभूत पदार्थों में प्रयोजनवश कर्ता-कर्मभाव का उपचार किया गया है, जैसा कि आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है - ___ "एवमनयोरात्मप्रकृत्योः कर्तृकर्मभावाभावेऽप्यन्योन्यनिमित्तनैमित्तिकभावेन द्वयोरपि बन्धो दृष्टः। ततः संसारः तत एव च तयोः कर्तृकर्मव्यवहारः।२ -यद्यपि आत्मा और कर्म में कर्तृकर्मभाव नहीं है, तथापि निमित्तनैमित्तिकभाव होने से दोनों का परस्पर बन्ध होता है, जो संसार का कारण है। इसीलिए उनमें कर्ता-कर्म का व्यवहार ( उपचार ) होता है। उपर्युक्त विवेचन से स्थित होता है कि 'निमित्त' संज्ञा औपचारिक नहीं है, यथार्थ है। हाँ निमित्तभूत पदार्थ के लिए 'कर्ता' संज्ञा औपचारिक है। निमित्तभाव स्वभावगत - द्रव्य के स्वभाव का अथवा उसके कार्य ( व्यापार ) के स्वभाव का अन्य द्रव्य की कार्योत्पत्ति सम्भव हो सकने के अनुकूल होना ही निमित्तभाव है, जैसे कुम्भकार के घटोत्पत्ति के अनुकूल होनेवाले शारीरिक और मानसिक व्यापार में घट के प्रति निमित्तभाव है। अत: निमित्तभाव द्रव्य के स्वभाव में अथवा उसके कार्य के स्वभाव में विद्यमान होता है। धर्मद्रव्य के स्वभाव में जीव और पद्गल की गति के प्रति निमित्तभाव विद्यमान है, अधर्मद्रव्य के स्वभाव में उनकी स्थिति के प्रति निमित्तभाव है, आकाशद्रव्य के स्वभाव में समस्त द्रव्यों का अवगाहनहेतुत्व मौजूद १. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक/अध्याय १/सूत्र ७/पृ० १५१ २. समयसार/आत्मख्याति/गाथा ३१२-३१३ ३. “कलशसम्भवानुकूलं व्यापारं कुर्वाण: "।" वही/आत्मख्याति/गाथा ८४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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