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________________ उपादाननिमित्तंविषयक मिथ्याधारणाएँ / २२१ निमित्त के बिना कार्य असम्भव धर्मद्रव्य के बिना जीव और पुद्गल की गति - परिणति असम्भव है, अधर्मद्रव्य के बिना स्थिति - परिणाम असम्भव है, आकाश के बिना द्रव्यों का अवगाहन सम्भव नहीं है, काल के अभाव में वर्तना नहीं हो सकती, कर्मोदय के अभाव में जीव के मोहरागादि परिणाम असम्भव हैं। मिथ्यात्वकषाय के अभाव में कर्मबन्ध सम्भव नहीं है। शुद्धोपयोग न होने पर संवर- निर्जरा - मोक्ष असम्भव हैं । कुम्भकार के घटसम्भवानुकूल योगोपयोग के बिना घटोत्पत्ति का अभाव निश्चित है । भट्ट अकलंकदेव ने निम्नलिखित व्याख्यान में जोर देकर कहा है कि निमित्त के अभाव में कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती — " इस लोक में कोई भी कार्य अनेक कारणों से सिद्ध होने योग्य देखा जाता है। जैसे मिट्टी का पिण्ड घटकार्यरूप परिणमन करने में आभ्यन्तर सामर्थ्य रखते हुए भी कुम्हार, दण्ड, चक्र, सूत्र, जल, आकाश आदि अनेक बाह्य उपकरणों की अपेक्षा रखता है और उनके होने पर ही घटपर्याय के रूप में आविर्भूत होता है। कुम्हार आदि बाह्य साधनों के सन्निधान के बिना अकेला मृत्पिण्ड घटरूप से उत्पन्न होने में समर्थ नहीं है।' ११ " आत्मात्मना रागादीनामकारक एव । ,२ परद्रव्यमेवात्मनो रागादिभावनिमित्तमस्तु " आत्मा स्वयं तो रागादि भावों का अकर्त्ता ही है। परद्रव्य ही रागादिभावों की उत्पत्ति का निमित्त है । यह कथन भी इस तथ्य को रेखांकित करता है कि पुद्गलकर्मरूप निमित्त के अभाव में रागादिरूप कार्य की उत्पत्ति असम्भव है। अन्वयव्यतिरेक की अपेक्षा 'निमित्त' संज्ञा यतः निमित्त के बिना कार्य की उत्पत्ति असम्भव है, इसलिए निमित्त उसे कहते हैं, जिसके सद्भाव में कार्य का सद्भाव होता है और अभाव में कार्य का अभाव। 'निमित्त' शब्द कारण का पर्यावाची है और श्री वीरसेनाचार्य ने प्रत्याख्यानावरणादि Jain Education International , १. “ इह लोके कार्यमनेकोपकरणसाध्यं दृष्टं यथा मृत्पिण्डो घटकार्यपरिणामप्राप्तिं प्रति गृहीताभ्यन्तरसामर्थ्यः, बाह्यकुलालदण्डचक्रसूत्रोदक- कालाकाशाद्यनेकोपकरणापेक्षः घटपर्यायेणाविर्भवति। नैक एव मृत्पिण्डः कुलालादिबाह्यसाधनसन्निधानेन विना घटात्मनाविर्भवितुं समर्थः । " तत्त्वार्थवार्तिक/अध्याय ५ / सूत्र १७ २. समयसार / आत्मख्याति /गाथा २८३-२८५ ३. “ को भवः ? आयुर्नामकर्मोदयनिमित्त आत्मनः पर्यायो भवः । प्रत्ययः कारणं निमित्तमित्यनार्थन्तरम्।” सर्वार्थसिद्धि / अध्याय १ / सूत्र २१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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