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२०४ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
क्योंकि श्रीगुरु सभी जीवों का उपकार करना चाहते हैं। किसी जीव को विशेष धर्म का साधन न होता जानकर एक आखड़ी आदि का ही उपदेश देते हैं, जैसे भील को कौए का मांस छोड़ने का उपदेश दिया, ग्वाले को नमस्कारमंत्र जपने का उपदेश दिया। किसी किसी को तीव्र कषाय का कार्य छुड़ाकर पूजाप्रभावनादि मन्दकषाय का कार्य करने का उपदेश दिया जाता है । यद्यपि कषाय करना बुरा ही है, तथापि सम्पूर्ण कषाय न छूटते देखकर जितनी छूटे उतना ही भला होगा, ऐसी दृष्टि यहाँ रहती है। कभी-कभी नरक का भय और स्वर्ग का लोभ ( जो कि कषाएँ हैं ) उत्पन्न करके भी पाप छुड़ाते हैं और धर्म में लगाते हैं। इस प्रकार जैसा जीव हो वैसा उपदेश देते हैं।
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इस पात्रानुसार उपदेश का औचित्य सिद्ध करते हुए पंडित जी कहते हैं “रोग तो शीतांग भी है और ज्वर भी है, किन्तु शीतांग से मरण होता देखकर वैद्य रोगी को ज्वर होने का उपाय करता है और ज्वर होने के पश्चात् उसके जीने की आशा हो तो बाद में ज्वर को भी दूर करने का उपाय करता है। इसी - प्रकार कषायें भी सभी हेय हैं, किन्तु किन्ही जीवों की उनसे पाप में प्रवृत्ति सम्भावित देखकर श्रीगुरु उनमें पुण्यप्रेरक कषाय जगाते हैं। पश्चात् उनमें सच्ची धर्मबुद्धि दिखाई देती है, तो उस कषाय को भी मिटाने का प्रयत्न करते हैं ।" "
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जो केवल व्यवहारधर्म में ही मग्न रहते हैं और आत्मानुभव का प्रयत्न नहीं करते उनके लिए गुरु निश्चयधर्म का उपदेश देते हैं। पंडित जी का कथन है कि “जिनमत में तो एक रागादि मिटाने का प्रयोजन है। इसलिए कहीं तीव्र रागादि छुड़ाकर मन्दरागादि कराने के प्रयोजन का पोषण किया गया है, कहीं सर्वरागादि मिटाने के प्रयोजन की पुष्टि की गई है, परन्तु रागादि बढ़ाने का प्रयोजन कहीं नहीं हैं ।” ३
स्वयोग्य धर्मग्रहण करने का उपदेश
आगम में साधक की योग्यता के अनुसार धर्मोपदेश दिया गया है और साधक को भी सोच-विचार कर स्वयोग्य धर्म ही ग्रहण करने के लिए सावधान किया गया है। इस विषय में पंडित टोडरमल जी का निम्न वक्तव्य ध्यान देने योग्य
है
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“आगम में जो उपदेश दिये गये हैं उन्हें सम्यग्रूप से पहचान कर जो
१. मोक्षमार्गप्रकाशक / आठवाँ अधिकार / पृ० २७८-२८०
२. वही, पृ० २८१ ३. वही, पृ० ३०३
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