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मोक्षमार्ग की अनेकान्तात्मकता / २०३
है। इसी प्रकार जब अशुभराग छूट जाता है, किन्तु साधक शुभराग में ही उलझ कर रह जाता है, तब निश्चयमोक्षमार्गरूप ओषधि का प्रयोग आवश्यक होता है, क्योंकि शुभरागरूप रोग का उन्मूलन इसी दवा से सम्भव है । शुभराग शुभराग द्वारा समाप्त नहीं किया जा सकता। इस प्रकार व्यवहारमोक्षमार्ग एवं निश्चयमोक्षमार्गरूप उपायों का प्रयोग साधक की स्थिति पर आश्रित है। उनमें से कोई भी निरपेक्षरूप से अर्थात् साधक की स्थिति का विचार किये बिना, हर अवस्था में प्रयोग के योग्य नहीं है। अतः स्पष्ट है कि मोक्ष की साधना एकान्तरूप नहीं है, अनेकान्तात्मक है। श्री ब्रह्मदेवसूरि का यह कथन पूर्व में उद्धृत किया जा चुका है
“प्राथमिकानां चित्तस्थिरीकरणार्थं विषयकषायदुर्ध्यानवञ्चनार्थं च परम्परया मुक्तिकारणमर्हदादिपरद्रव्यं ध्येयं पश्चात् चित्ते स्थिरीभूते साक्षान्मुक्तिकारणं स्वशुद्धात्मतत्त्वमेव ध्येयं, नास्त्येकान्तः । एवं साध्यसाधकभावं ज्ञात्वा ध्येयविषये विवादो न कर्त्तव्यः । ""
- प्राथमिक अवस्था में चित्त को स्थिर करने तथा विषयकषायजन्य दुर्ध्यान को रोकने के लिए परम्परया मुक्ति के कारणभूत अरहन्तादि पञ्चपरमेष्ठी ध्येय हैं। पश्चात् चित्त स्थिर हो जाने पर साक्षात् मुक्ति का हेतुभूत निज शुद्धात्मतत्त्व ही ध्येय है इनमें से किसी एक के ही ध्येय होने का एकान्त नहीं है। इस प्रकार दोनों ध्येयविषयों में साध्य - साधकभाव जानकर ध्येय के विषय में विवाद नहीं करना चाहिए |
यहाँ सूरिजी ने ‘नास्त्येकान्तः' वचन द्वारा मोक्षसाधना में एकान्तात्मकता का स्पष्ट शब्दों में निषेध कर उसके अनेकान्तात्मक होने का प्रतिपादन किया है। आगम में पात्र - सापेक्ष उपदेश
पूर्व में निरूपित किया गया है कि मोक्ष की सिद्धि के लिए आगम में भिन्न-भिन्न भूमिका में स्थित साधकों को भिन्न-भिन्न साधनाओं के उपदेश दिए गए हैं। वे तीन हैं केवल व्यवहारधर्म, निश्चयसहित व्यवहारधर्म तथा निश्चयधर्म | इन पर प्रकाश डालते हुए पंडित टोडरमल जी कहते हैं "जिन जीवों को निश्चय का ज्ञान नहीं है व उपदेश देने पर भी नहीं हो सकता, उन मिथ्यादृष्टि जीवों को कुछ धर्म- सन्मुख होने पर श्रीगुरु व्यवहार ही का उपदेश देते हैं । तथा जिन्हें निश्चय-व्यवहार का ज्ञान है और उपदेश देने पर हो सकता है ऐसे सम्यग्दृष्टि एवं सम्यक्त्वसन्मुख मिथ्यादृष्टि जीवों को निश्चयसहित व्यवहार का उपदेश देते हैं,
१. परमात्मप्रकाश / ब्रह्मदेवटीका २/३३
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