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________________ २०२ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन साधन हैं, किन्तु रोगी को हर ओषधि नहीं दी जा सकती। रोग के अनुसार ही औषध देने से वह नीरोग हो सकता है तथा यदि उसे अनेक रोग हों तो उसे उस रोग की दवा पहले देनी होगी, जिसकी प्रबलता है और जिसकी चिकित्सा हो जाने पर ही अन्य रोगों की चिकित्सा सम्भव है। उसके बाद अन्य रोगों की दवा दी जा सकती है। जैसे किसी को ज्वर और निर्बलता दोनों हैं, तो उसके ज्वर की चिकित्सा पहले करनी होगी। अनन्तर निर्बलता को दूर करने के लिए पुष्टिकारी ओषधियाँ देनी होगी। इसी क्रम से वह पूर्ण स्वस्थ हो सकता है। इसमें व्यतिक्रम कर दिया तो रोग तो न मिटेगा, रोगी मिट जायेगा। मोक्ष की साधना भी इसी प्रकार है। इसमें राग नामक रोग को मिटाने का लक्ष्य है, क्योंकि राग का मिटना ही मोक्ष का मार्ग है। इसीलिए आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है - "स्वस्ति साक्षान्मोक्षमार्गसारत्वेन शास्त्रतात्पर्यभूताय वीतरागत्वायेति।' तथा आचार्य जयसेन का कथन है – “आगम: सर्वोऽपि रागपरिहारार्थम्।" अर्थात् राग का अभाव होना ही मोक्षमार्ग का सार है और सम्पूर्ण आगम में रागपरिहार का ही उपदेश है। राग दो प्रकार का होता है - अशुभ और शुभ। इनको मिटाने की दो ओषधियाँ हैं – व्यवहारमोक्षमार्ग और निश्चयमोक्षमार्ग। प्राथमिक अवस्था में जब अशुभराग की प्रबलता होती है तब व्यवहारमोक्षमार्ग नामक ओषधि का प्रयोग किया जाता है। इस अवस्था में यही दवा कार्यकारी होती है। इस रोग में रोगी निश्चयमोक्षमार्ग की औषध सेवन करने लायक नहीं होता, जैसे ज्वर की अवस्था में व्यक्ति पुष्टिकारक पाकादि औषधियाँ सेवन करने योग्य नहीं होता। पंडित टोडरमलजी कहते हैं - “पाकादिक औषधियाँ पुष्टिकारी हैं, परन्तु ज्वरवान् उन्हें ग्रहण करे तो अत्यधिक हानि होगी। इसी प्रकार ऊँचा धर्म बहुत भला है, परन्तु अपने विकारभाव दूर न हुए हों और उसे ग्रहण किया जाय तो महान् अनर्थ होगा। जैसे अपना अशुभ विकार तो छूटा न हो और निर्विकल्प दशा अंगीकार की जाय तो विकार की ही वृद्धि होगी। इसी प्रकार भोजनादि विषयों में आसक्ति हो और कोई आरम्भ-त्यागादि धर्म अपनाए तो हानि के अतिरिक्त और कुछ नहीं होगा। ऐसे ही व्यापारादि करने का विकार छूटा न हो और त्यागभेषरूप धर्मधारण किया जाय तो दोष की ही उत्पत्ति होगी।" अत: अशुभराग की अवस्था में व्यवहारमोक्षमार्गरूप औषध ही कार्यकारी १. पञ्चास्तिकाय/तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति/गाथा, १७२ २. प्रवचनसार/तात्पर्यवृत्ति, ३/६७ ३. मोक्षमार्गप्रकाशक/आठवाँ अधिकार/पृ० ३०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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