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________________ मोक्षमार्ग की अनेकान्तात्मकता / २०५ अपने योग्य हो, उसे ही अंगीकार करना चाहिए। जैसे वैद्यकशास्त्रों में अनेक ओषधियाँ बतलाई गयी हैं, उन्हें जानना तो चाहिए, किन्तु ग्रहण उसे ही करना चाहिए जिससे अपना रोग दूर हो। यदि अपने को शीत का रोग हो तो उष्ण ओषधि ग्रहण की जाय, शीतल ओषधि ग्रहण न की जाय। यह ओषधि दूसरों को लाभकारी है ऐसा समझना चाहिए। इसी प्रकार जैनशास्त्रों में अनेक उपदेश हैं, उन्हें जानना चाहिए, किन्तु ग्रहण उसे ही करना चाहिए जिससे अपना विकार दूर हो। विकार का पोषण करनेवाला उपदेश ग्रहण नहीं करना चाहिए, वह दूसरों के लिए हितकर है ऐसा समझना चाहिए। जैसे शास्त्रों में कहीं निश्चयपोषक उपदेश है, कहीं व्यवहारपोषक । अब यदि अपने में व्यवहार की अधिकता ( एकान्त व्यवहार ) हो तो निश्चयपोषक उपदेश अंगीकार कर सम्यग्रूप से प्रवर्तन करना चाहिए। यदि निश्चय की अधिकता ( एकान्तनिश्चय ) हो तो व्यवहारपोषक उपदेश ग्रहण कर समीचीन मार्ग अपनाना चाहिए। " "१ “विपरीत उपदेश ग्रहण करने पर हानि ही होगी। उदाहरणार्थ, कोई व्यवहारश्रद्धान ( एकान्तव्यवहार के श्रद्धान ) के कारण आत्मज्ञान से भ्रष्ट हो रहा हो और व्यवहार के उपदेश को ही प्रधानता देकर आत्मज्ञान का उद्यम न करे, तो संसार में ही भटकता रहेगा। इसी प्रकार कोई निश्चयश्रद्धान ( एकान्तनिश्चय के श्रद्धान) के कारण वैराग्य से भ्रष्ट होकर स्वच्छन्द आचरण कर रहा हो और निश्चय के उपदेश को ही ग्रहण कर विषयकषाय का पोषण करे तो अनर्थ ही होगा । " २ अतः स्वयोग्य धर्म के उपदेश को ग्रहण करने से ही हित होता है। इसी तरह जब तक ऊँचा धर्म ग्रहण करने की सामर्थ्य उत्पन्न न हुई हो, तब तक उसे ग्रहण न करने के लिए भी आगम में सावधान किया गया है। इस विषय में पंडित टोडरमल जी के वचन पूर्व में उद्धृत किये जा चुके हैं । स्वयोग्य धर्म ग्रहण करने का यह उपदेश साधनापद्धति की एकान्तात्मकता का निषेध करता है। भिन्न-भिन्न भूमिका में भिन्न-भिन्न धर्म ग्राह्य पंडित जी का कथन है – “जैसे कोई ओषधि गुणकारी है, परन्तु अपने को जब तक उससे लाभ हो, तभी तक ग्राह्य है। उसके बाद वह हानिकर होती है । उदाहरणार्थ, शीत मिट जाने पर भी कोई उष्ण ओषधि सेवन करता रहे, तो उलटकर उष्णरोग हो जायेगा । इसी प्रकार भले ही कोई क्रिया धार्मिक हो, किन्तु १. मोक्षमार्गप्रकाशक / आठवाँ अधिकार/ पृ० २९८-२९९ २. वही, पृ० २९९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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