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________________ साध्यसाधकभाव की भ्रान्तिपूर्ण व्याख्याएँ । १९५ उक्त गाथा में आचार्य कुन्दकुन्द ने साधना का ही पात्र के अनुसार निश्चय और व्यवहार दृष्टियों से विभाजन किया है, जिसका तात्पर्य यह है कि जो शुद्धोपयोग में समर्थ हो गये हैं उनके लिए शुद्धोपयोगरूप निश्चयनयात्मक साधना ही उपयोगी है तथा जो उसमें असमर्थ हैं, उनके लिए शुभोपयोगरूप व्यवहारनयात्मक साधना कार्यकारी है। यह आचार्य जयसेन के पूर्वोद्धृत वचनों से समर्थित है, जो उन्होंने निर्दिष्ट गाथा की टीका में कहे हैं। उसमें उन्होंने विषयकषायरूप दुर्ध्यान का निरोध करने के लिए व्यवहारनय को प्रयोजनवान बतलाया है। उक्त दुर्ध्यान का निरोध व्यवहारनय अथवा अशुद्धात्मा को जानने से नहीं, अपितु व्यवहारनय के विषयभूत मोक्षमार्ग को अपनाने से सम्भव है। अत: सिद्ध है कि उपर्युक्त गाथा में आचार्य कुन्दकुन्द ने अपरमभाव में स्थित जीवों के लिए न तो अशुद्धात्मा को जानना प्रयोजनवान बतलाया है, न व्यवहारमोक्षमार्ग की मात्र जानकारी करना, अपितु व्यवहारमोक्षमार्ग को जानकर उसका अवलम्बन करने को प्रयोजनवान बतलाया है। अत: उक्त गाथा से यह फलित करना भी सर्वथा असमीचीन है कि व्यवहारनय का विषय जानने के लिए तो प्रयोजनवान बतलाया गया है, पर आदर करने योग्य नहीं बतलाया गया। दशम अध्याय में स्पष्ट किया गया है कि व्यवहारनय का विषयभूत साधनामार्ग कथंचित् आदर करने योग्य ( उपादेय ) भी है। इस प्रकार प्रस्तुत गाथा से भी यही सिद्ध होता है कि निश्चयधर्म और व्यवहारधर्म में कार्यकारणात्मक साध्य-साधकभाव है जिससे निश्चय और व्यवहार नय परस्पर सापेक्ष हैं। व्यवहार के ज्ञानमात्र से तीर्थप्रवृत्ति सम्भव नहीं प्राथमिक भूमिका में मोक्ष की साधना के लिए व्यवहारधर्म के अवलम्बन का उपदेश देनेवाली उक्त गाथा' के समर्थन में आचार्य अमृतचन्द्र ने निम्नलिखित प्राचीन गाथा का उल्लेख किया है - जइ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहारणिच्छए मुयह । एक्केण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तच्चं ।।। - यदि तुम चाहते हो कि जिनमत चलता रहे तो निश्चय और व्यवहार इन दोनों में से किसी को मत छोड़ो, क्योंकि एक के बिना तीर्थ नष्ट हो जायेगा और दूसरे के बिना तत्त्व। तात्पर्य यह कि व्यवहारनय का उपदेश ग्रहण न करने पर मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि उसके बिना जीव को अपनी अशुद्ध अवस्था तथा १. समयसार/गाथा १२ २. वही/आत्मख्याति टीका में उद्धृत/गाथा १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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