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________________ १९६ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन व्यवहारमोक्षमार्ग का बोध नहीं हो सकता, जिससे न तो उसे मोक्ष की आवश्यकता प्रतीत हो सकती है और न वह व्यवहारमोक्षमार्ग में स्थित होकर निश्चयमोक्षमार्ग के अवलम्बन की सामर्थ्य अर्जित कर सकता है। इसी प्रकार निश्चयनय का उपदेश ग्रहण न करने पर आत्मा के परमार्थ स्वरूप तथा परमार्थ मोक्षमार्ग का ज्ञान सम्भव नहीं है। इसके अभाव में व्यक्ति अपने अशद्ध स्वरूप को ही शुद्ध स्वरूप तथा व्यवहार मोक्षमार्ग को ही परमार्थ मोक्षमार्ग समझता रहेगा, जिससे मोक्ष न हो पायेगा। अत: दोनों नयों के अवलम्बन से ही जिनमत की प्रवृत्ति होती है, इसलिए दोनों नयों में से किसी को भी नहीं छोड़ना चाहिए। इस प्रकार यह गाथा भी तीर्थप्रवृत्ति ( मोक्षमार्ग में प्रवृत्त होने ) के लिए व्यवहारधर्म के अवलम्बन का प्रतिपादन करती है। किन्तु पूर्वचर्चित विद्वज्जन कहते हैं कि इस गाथा में व्यवहारनय को तीर्थप्रवृत्ति का हेतु इसलिए कहा गया है कि उसके ( व्यवहारनय ) द्वारा प्रतिपादित गुणस्थान, मार्गणास्थान आदि जीव के व्यावहारिक भेदों को जाने या स्वीकार किये बिना मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति नहीं हो सकती। अभिप्राय यह कि मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति के लिए व्यवहारनय के विषय को मात्र जान लेना या स्वीकार कर लेना पर्याप्त है, उसका आश्रय लेने की आवश्यकता नहीं है।' किन्तु, यह व्याख्या आगमसम्मत नहीं है। व्यवहारनय के विषयों में व्यवहारधर्म भी सम्मिलित है। मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति के लिए व्यवहारधर्म को मात्र जान लेना पर्याप्त नहीं है, अपितु उसका अनुसरण करना भी आवश्यक है, क्योंकि उससे शनैः-शनैः निश्चयमोक्षमार्ग के अवलम्बन की क्षमता आविर्भूत होती है। अतएव वह निश्चयमोक्षमार्ग का साधक है। इसी दृष्टि से उक्त गाथा में जिनमत के प्रवर्तन के लिए व्यवहारनय का अवलम्बन आवश्यक बतलाते हुए उसका परित्याग न करने के लिए कहा गया है। आचार्य जयसेन के निम्नलिखित वचनों से प्रमाणित है कि उपरिनिर्दिष्ट गाथा में निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्ग में सुवर्ण-पाषाण और अग्नि के समान साध्य-साधकभाव प्रतिपादित किया गया है - “निश्चयं व्याख्याय पुनरपि किमर्थं व्यवहानयव्याख्यानम् ? इति चेत्रैवम्, अग्निसुवर्णपाषाणयोरिव निश्चयव्यवहारनयोः परस्परसाध्यसाधकभावदर्शनार्थमिति।" तथा चोक्तं - जइ जिणसमई पउंजह ता मा ववहारणिच्छए मुवह । एक्केण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण पुण तच्चं ।। १. जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा/भाग १/पृ० १५४-१५५ २. समयसार/तात्पर्यवृत्ति/गाथा २३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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