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१९४ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
हैं' आचार्य कुन्दकुन्द के इस कथन का 'अपरमभाव ( सविकल्पावस्था ) में स्थित जीवों के लिए अशुद्धात्मा का ज्ञान प्रयोजनवान है', यह अर्थ लेने का कोई आधार नहीं हैं, क्योंकि व्यवहारनय का विषय केवल अशुद्धात्मा नहीं है, अपितु सम्पूर्ण व्यवहारनयात्मक उपदेश है, जिसमें व्यवहारमोक्षमार्ग भी समाविष्ट है और व्यवहारमोक्षमार्ग का मात्र ज्ञान कर लेना कार्यकारी नहीं है, अपितु ज्ञान करके उसका अवलम्बन करना कार्यकारी है। ज्ञान आचरण के लिए ही आवश्यक होता है।
दूसरे, अपरमभाव में स्थित जीवों के लिए अशुद्धात्मा का ही ज्ञान क्यों प्रयोजनवान है, शुद्धात्मा का ज्ञान क्यों प्रयोजनवान नहीं है ? इसका कोई समाधान नहीं है। ज्ञान तो प्रत्येक मुमुक्षु के लिए आत्मा के शुद्ध-अशुद्ध दोनों रूपों का आवश्यक है। तभी तो आत्मा के पूर्ण ( अनेकान्त ) स्वरूप का बोध होगा और ज्ञाता की मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति हो सकेगी। केवल अशुद्धात्मा के ज्ञान से तो वह अशुद्धात्मा को ही शुद्धात्मा समझ बैठेगा, जिससे महान् अनर्थ होगा। प्राथमिक साधकों को तो सर्वप्रथम शुद्धात्मा का ज्ञान आवश्यक है, क्योंकि वे अनादि से अपने अशुद्धस्वरूप को शुद्धस्वरूप समझते आ रहे हैं, इसीलिए कुन्दकुन्द ने समयसार के आरम्भ में ऐसे जीवों को आत्मा का शुद्धस्वरूप दर्शाने की प्रतिज्ञा की है। मात्र अशुद्धात्मा का ज्ञान किसी के लिए कैसे प्रयोजनवान हो सकता है ? यह समझ के बाहर है। अत: आचार्य कुन्दकुन्द की उक्त गाथा का यह अर्थ निकालना कि अपरमभाव में स्थित जीवों के लिए अशुद्धात्मा का ज्ञान प्रयोजनवान है, नितान्त विपरीत व्याख्या है।
वस्तुत: ज्ञान के विषय का तो ऐसा विभाजन हो ही नहीं सकता कि किसी को केवल निश्चयनय के विषय का ज्ञान प्रयोजनवान हो और किसी को केवल व्यवहारनय का, क्योंकि इससे वस्तु के अनेकान्तस्वरूप का ज्ञान सम्भव नहीं है। इससे तो एकान्तवाद ही फलित होगा, जो जैनसिद्धान्त के विपरीत है और मिथ्यात्व का कारण है। हाँ, साधना के विषय का ऐसा विभाजन हो सकता है कि किसी के लिए निश्चयसापेक्ष व्यवहारनयात्मक साधना ही उपयोगी हो और किसी के लिए व्यवहारसापेक्ष निश्चयनयात्मक साधना ही, क्योंकि इसमें वस्तुस्वरूप को जानने का प्रश्न नहीं होता, अपितु मोक्षमार्ग के अवलम्बन का प्रश्न होता है जो साधक की क्षमता पर निर्भर है। क्षमतानुसार उक्त द्विविध साधनाओं का अवलम्बन भिन्न-भिन्न काल में ही सम्भव है, एक ही काल में नहीं। अत: साधना का पात्र के अनुसार विभाजन हो सकता है।
१. “तं एयत्तविहत्तं दाएहं अप्पणो सविहवेण।' समयसार/गाथा, ५
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