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________________ साध्यसाधकभाव की भ्रान्तिपूर्ण व्याख्याएँ । १९३ सूरिजी के इन वचनों से सम्यग्रूपेण अवगत हो जाता है कि निश्चयधर्म और व्यवहारधर्म में जो कार्य-कारण भाव है, उसे ही आगम में साध्य-साधकभाव कहा गया है, ज्ञाप्य-ज्ञापकभाव को नहीं। 'सुद्धो सुद्धादेसो' गाथा का तात्पर्य निश्चयधर्म और व्यवहारधर्म में ज्ञाप्य-ज्ञापकभाव को ही साध्य-साधकभाव मानने के कारण निर्दिष्ट विद्वानों ने निम्नलिखित गाथा की भ्रान्तिपूर्ण व्याख्या की सुद्धो सुद्धादेसो णयव्वो परमभावदरसीहिं । ववहारदेसिदो पुण जे दु अपरमे ट्ठिदा भावे ।।' - परमभावदर्शियों को शुद्धात्मा का कथन करनेवाला शुद्धनय ( निश्चयनय ) जानने योग्य है तथा जो अपरमभाव में स्थित हैं वे व्यवहार द्वारा उपदेश के योग्य हैं। आचार्य जयसेन के अनुसार इसका तात्पर्य यह है कि जो साधक शुद्धोपयोग में समर्थ हो गये हैं, उनके लिए शुद्धोपयोगरूप निश्चयधर्म ही उपयोगी है, किन्तु जो उसमें समर्थ नहीं हुए हैं, उनके लिए विषयकषायरूप दुर्ध्यान का निरोध करने हेतु शुभोपयोगरूप व्यवहारधर्म भी उपयोगी है। किन्तु, पूर्वोक्त विद्वान मानते हैं कि इस गाथा में आचार्य कुन्दकुन्द ने यह कहा है कि शुद्धात्मभावदर्शी ( शुद्धात्मा का अनुभव करनेवाले ) जीव शुद्धात्मा का ही अनुभव करते हैं, किन्तु जो सविकल्पावस्था में स्थित हैं उनके लिए अशुद्धात्मा का ज्ञान प्रयोजनवान है। प्रस्तुत गाथा का यह अभिप्राय ग्रहणकर उक्त विद्वज्जन कहते हैं कि इस प्रकार आचार्यों ने व्यवहारनय का विषय जानने के लिए तो प्रयोजनवान बतलाया है, पर आदर करने योग्य नहीं बतलाया।' विद्वज्जनों द्वारा ग्रहण किया गया यह अभिप्राय नितान्त असमीचीन है। इसके निम्नलिखित कारण हैं प्रथम तो 'जो अपरमभाव में स्थित हैं वे व्यवहारनय द्वारा उपदेश के योग्य १. समयसार/गाथा, १२ २. “अत्र तु न केवलं भूतार्थो निश्चयनयो निर्विकल्पसमाधिरतानां प्रयोजनवान् भवति किन्तु निर्विकल्पसमाधिरहितानां पुन: ... ... केषांचित् प्राथमिकानां कदाचित् सविकल्पावस्थायां मिथ्यात्वविषयकषायदुर्ध्यानवञ्चनार्थं व्यवहारनयोऽपि प्रयोजनवान् भवतीति प्रतिपादयति।" वही/तात्पर्यवृत्ति/गाथा १२ ३. जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा/भाग १/पृ० १५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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