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________________ १९२ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन - जो व्यक्ति व्यवहारमोक्षमार्ग से विमुख होकर निश्चयमोक्षमार्ग प्राप्त करना चाहता है वह बीज, भूमि, जल, उर्वरक आदि के बिना धान्य उगाना चाहता है । आचार्यों के ये वचन स्पष्ट करते हैं कि निश्चयधर्म और व्यवहारधर्म में साध्यसाधकभाव से क्या अभिप्राय है ? यदि उससे ज्ञाप्य ज्ञापकभाव अभिप्रेत होता, तो आचार्यगण ज्ञाप्य ज्ञापकभाव शब्द का ही प्रयोग करते और सर्वत्र यह कहते कि निश्चयधर्म को जानने के लिए व्यवहारधर्म को जानो, यह न कहते कि निश्चयधर्म की सिद्धि के लिए व्यवहारधर्म का अनुष्ठान करो।' आचार्यों ने यह कहीं नहीं कहा है कि जो निश्चयधर्म को जानने के लिए व्रत-तप आदि को जानता है वह परम्परया मोक्ष प्राप्त करता है । सर्वत्र यही कहा कि जो निश्चयधर्म की साधना के लिए व्रत-तप आदि करता है वह परम्परया मोक्ष पाता है। २ अतः चर्चित विद्वज्जनों की यह व्याख्या अत्यन्त हास्यास्पद है कि निश्चयधर्म और व्यवहार धर्म में जो ज्ञाप्य ज्ञापकभाव है उसे ही साध्य-साधकभाव कहा गया है। उपर्युक्त प्रमाणों से सिद्ध है कि अग्नि और सुवर्णपाषाण अथवा मलिन वस्त्र और जल में जैसा कार्यकारणात्मक ( निमित्त - नैमित्तिकभावरूप ) साध्य - साधकभाव है, वैसा ही साध्य - साधकभाव आचार्यों ने निश्चयधर्म और व्यवहारधर्म में बतलाया है। ब्रह्मदेवसूरि ने उसे उदाहरणपूर्वकं निम्नलिखित कथन में स्पष्ट कर दिया है “प्राथमिकानां चित्तस्थिरीकरणार्थं विषयकषायदुर्ध्यानवञ्चनार्थं च परम्परया मुक्तिकारणमर्हदादिपरद्रव्यं ध्येयं पश्चात् चित्ते स्थिरीभूते साक्षान्मुक्तिकारणं स्वशुद्धात्मतत्त्वमेव ध्येयं नास्त्येकान्तः । एवं साध्य - साधकभावं ज्ञात्वा ध्येयविषये विवादो न कर्त्तव्य: । "" - - प्राथमिक अवस्था में चित्त स्थिर करने तथा विषयकषायरूप दुर्ध्यान को रोकन के लिए परम्परया मुक्ति के कारणभूत अरहन्तादि पञ्चपरमेष्ठी ध्येय हैं। पश्चात् चित्त स्थिर हो जाने पर साक्षात् मुक्ति का हेतुभूत निजशुद्धात्मतत्त्व ही ध्येय है। इनमें से कोई एक ही सर्वथा ध्येय नहीं है । इस प्रकार दोनों ध्येयविषयों में साध्यसाधकभाव जानकर ध्येय के विषय में विवाद नहीं करना चाहिए ( पञ्चपरमेष्ठी का ध्यान व्यवहारधर्म है तथा स्वशुद्धात्मा का ध्यान निश्चयधर्म । ) । १. “गृहस्थेनाभेदरत्नत्रयस्वरूपमुपादेयं कृत्वा भेदरत्नत्रयात्मकः श्रावकधर्मः कर्त्तव्यः । " परमात्मप्रकाश / ब्रह्मदेवटीका २/१३३ २. “ यस्तु शुद्धात्मभावनासाधनार्थं बहिरङ्गव्रततपश्चरणदानादिकं करोति स परम्परया मोक्षं लभते ।” समयसार/ तात्पर्यवृत्ति/गाथा १४६ ३. परमात्मप्रकाश / ब्रह्मदेवटीका २/३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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