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________________ ज्ञापकत्व साधकत्व नहीं है निश्चयधर्म और व्यवहारधर्म में साध्य - साधकभाव की चर्चित विद्वानों ने जो व्याख्यायें की हैं, उनमें एक यह है कि अन्तरंग में निश्चयधर्म ( लब्धिरूप ) प्रकट होने पर बाहर जो व्यवहारधर्म फलित होता है, उससे अन्तरंग निश्चयधर्म लब्धिरूप ) ज्ञापित होता है। इस तरह व्यवहारधर्म निश्चयधर्म का ज्ञापक है और निश्चयधर्म ज्ञाप्य । इस ज्ञाप्य ज्ञापकभाव को ही साध्य - साधकभाव कहा गया है। साध्यसाधकभाव की भ्रान्तिपूर्ण व्याख्याएँ / १९१ आगमवचनों की इससे अधिक भ्रान्त व्याख्या और कोई नहीं हो सकती। आचार्यों के वक्तव्य इसमें प्रमाण हैं कि निश्चयधर्म और व्यवहारधर्म में ज्ञाप्यज्ञापकभाव के कारण साध्य-साधकभाव नहीं कहा गया है, अपितु जैसे स्वर्ण की शुद्धि में अग्नि बहिरंग साधक होती है, मलिन वस्त्र के स्वच्छ होने में जल साधक होता है तथा धान्य की उत्पत्ति में भूमि, जल, उर्वरक आदि साधक होते हैं, वैसे ही निश्चयधर्म की सिद्धि में व्यवहारधर्म साधक है, इसलिए उनमें साध्य - साधकभाव कहा गया है। आचार्य अमृतचन्द्र का कथन है कि जैसे खान से निकले हुए अशुद्ध स्वर्ण में अर्पित अग्नि शुद्ध स्वर्ण की साधक होती है, वैसे ही व्यवहारमोक्षमार्ग अशुद्धजीव को क्रमशः शुद्धभूमिकाओं ( गुणस्थानों ) में प्रतिष्ठित करता हुआ शुद्धात्मानुभूतिरूप निश्चयमोक्षमार्ग का साधक होता है । ' तात्पर्य यह कि यद्यपि स्वर्णपाषाण स्वयं शुद्ध स्वर्णरूप में परिणत होता है, तथापि अग्नि बहिरंग सहायक होती है, वैसे ही यद्यपि निश्चयनय से जीव स्वयं शुद्धोपयोगरूप निश्चयमोक्षमार्ग में परिणत होता है, तथापि व्यवहारमोक्षमार्ग उसमें बहिरंग साधक होता है। यही बात आचार्य जयसेन ने संक्षेप में निम्नलिखित शब्दों में कही है स्वर्णपाषाणस्याग्निरिव निश्चयमोक्ष — "अयं व्यवहारमोक्षमार्गः मार्गस्य बहिरङ्गसाधको भवति । ३ धान्य और बीजादि के समान साध्य-साधकभाव का वर्णन करते हुए पं० आशाधर जी कहते हैं - Jain Education International व्यवहारपराचीनो निश्चयं बीजादिना विना मूढः स सस्यानि १. जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा / भाग २ / पृ० ७९५ २. पञ्चास्तिकाय / तत्त्वदीपिका/गाथा १६० तथा १७२ ३. वही / तात्पर्यवृत्ति / १६० ४. अनगारधर्मामृत १ / १०० श्चिकीर्षति । सिसृक्षि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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